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________________ ३५० प्रमेयकमलमार्तण्डे तदाधेयत्वाच्च किमिदं तदाधेयत्वं नाम तत्र समवायः, तादात्म्यं वा, तत्रोत्कलितत्वमानं वा ? न तावत्समवायः, दत्तोत्तरत्वात् । नापि तादात्म्यम् ; मतान्तरानुषङ्गात् । तेषामात्मनोऽत्यन्त भेदे सकलात्मनां गगनादीनां च व्यापित्वे 'तौवोत्कलितत्वम्' इत्यपि श्रद्धामात्रगम्यम् । अथाऽदृष्टानियम: 'यद्ध्यात्मीयाऽदृष्टनिष्पाद्य सुखं तदात्मीयमन्यत्त परकीयम्' इत्यप्यसारम् ; अदृष्टस्याप्यात्मीयत्वासिद्धः। समवायादेस्तन्नियामकत्वेप्युक्तदोषानुषङ्गः। यत्र यददृष्ट सुखं दुःखं चोत्पादयति तत्तस्यत्येपि आपका (प्रभाकर का) प्रवेश हो जाता है, यदि उसी एक व्यक्ति में उनके आविर्भूत होने को तदाधेयत्व कहते हो तो ऐसा यह तीसरा पक्ष भी बिलकुल ही गलत है, क्योंकि उस विवक्षित देवदत्तादि के सुख दुःख आदि उस देवदत्त से जब अत्यन्त भिन्न हैं तब वे सुखादिक सभी व्यापक प्रात्मानों में और आकाशादिक में भी प्रकट हो सकते हैं, जैसे-देवदत्त की आत्मा व्यापक है वैसे सभी आत्माएँ, तथा गगन आदि भी व्यापक हैं, अतः अन्य आत्मा आदि में वे प्रकट न होकर उसी देवदत्त में ही प्रकट होते हैं ऐसा कहना तो मात्र श्रद्धागम्य है, तर्क संगत नहीं है । प्रभाकर इस देवदत्त के सुखादिक देवदत्त में ही प्रकट होते हैं ऐसा नियम तो उस देवदत्त के अदृष्ट (भाग्य) के निमित्त से हुआ करता है, क्योंकि जिस अात्मा के अदृष्ट के द्वारा जो सुख उत्पन्न किया गया है वह उसका है और अन्य सुखादिक अन्य व्यक्ति के हैं इस प्रकार मानने से कोई दोष नहीं आता है। जैन—यह समाधान भी असार है, क्योंकि अदृष्ट में भी अभी अपनापन निश्चित नहीं है । अर्थात् यह अदृष्ट इसी व्यक्ति का है ऐसा कोई नियामक हेतु नहीं है कि जिससे अपनापन अदृष्ट में अपनापन सिद्ध होवे । समवाय संबंध को लेकर अदृष्ट का निश्चित व्यक्ति में संबंध करना भी शक्य नहीं है, क्योंकि प्रथम तो समवाय ही असिद्ध है, दूसरे सर्वत्र व्यापक प्रात्मादि में यह नियम समवाय नहीं बना सकता है; कि यह सुख इसी आत्मा का है अन्य का नहीं । प्रभाकर-जिस आत्मा में जो अदृष्ट सुख और दुःख को उत्पन्न करता है वह उसी आत्मा का कहलाता है। जैन-यह कथन भी मनोरथ-कल्पना मात्र है, इससे तो परस्पराश्रय दोष आता है, देखो-पहले तो यह अदृष्ट इसी देवदत्त का है अन्य का नहीं ऐसा नियम सिद्ध होवे तब उस अदृष्ट के नियम से सुखादिक का उसी देवदत्त में रहने का नियम बने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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