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अात्माप्रत्यक्षत्ववाद:
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इति किङ कृतोयं विभागः ? समवायादेश्च निषे( त्स्य )मानत्वानियामकत्वायोगः । तन्नान्वयमात्रेण सुखादीनामात्मकार्यत्वम् । तदभावेऽभावात्तच्च न्न; नित्यव्यापित्वाभ्यां तस्याभावासम्भवात् । तत्र समवायादित्यप्यसत्; तस्यात्रैव निराकरिष्यमाणत्वात्, सर्वत्राविशेषाच ; तेन तेषां तौव समवायासम्भवात् ।
अन्वय मात्र से अर्थात उसके "होने पर होता है", इतने मात्र से सुखादिक अपने ही कार्य हैं ऐसा नियम नहीं होता है ।
प्रभाकर- अच्छा तो व्यतिरेक से नियम हो जायगा, इस विवक्षित देवदत्त के अभाव होने पर उसके सुख दुःख आदिका भी प्रभाव होता है, इस प्रकार का व्यतिरेक करने से उसीका कार्य है ऐसा सिद्ध हो जायगा।
जैन- सो ऐसा भी नहीं बन सकता है । क्योंकि आप देवदत्तादि व्यक्ति की आत्मा को नित्य और व्यापी मानते हैं । अत: आत्मा का सुखादि के साथ व्यतिरेक बनना शक्य नहीं।
प्रभाकर-देवदत्तादिक के सुखादिक देवदत्त में ही समवाय संबंध से रहते हैं, अतः नियम हो जायगा ।
जैन-यह भी असत् कथन है । हम जैन आगे समवाय का निरसन करने वाले ही हैं । समवाय सब जगह समानरूप से जब रहता है तब यह नियम नहीं बन सकता है कि इन सुखादिक का इसी व्यक्ति में समवाय है अन्य व्यक्ति में नहीं, इस प्रकार उसी एक देवदत्तादि का कार्य होने से वे सुखादिक उसी के कहलाते हैं ऐसा दूसरा पक्ष और उसी में वे समवाय संबंध से रहते हैं अतः वे सुखादि देवदत्तादि के कहलाते हैं यह तीसरा पक्ष, दोनों ही खंडित हो जाते हैं।
___ अब चौथा पक्ष– उसी विवक्षित देवदत्तादि में आधेयरूप से सुखादि रहते हैं, अत: वे उसी के माने जाते हैं-ऐसा कहो तो पहिले यह बताओ कि उसका आधेयपना क्या है-क्या उस विवक्षित व्यक्ति में समवाय होना, या तादात्म्य होना, या उसमें आविर्भूतमात्र होना ? यदि उस विवक्षित व्यक्ति में उनका समवाय होना यह तदाधेय है-तो ऐसा कह नहीं सकते, क्योंकि हम समवाय का आगे खंडन करने वाले हैं ऐसा हम उत्तर दे चुके हैं। यदि तादात्म्य को तदाधेयत्व कहो-अर्थात् एक विवक्षित व्यक्ति के सुखादि का उसी में तादात्म्य होने को तदाधेयत्व मानते हो-तब हमारे जैनमत में
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