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________________ स्वसंवेदनज्ञानवादः ३२५ करणमित्यप्यसमीचीनम् ; भावेन्द्रियमनसोश्चेतनत्वात् । तत्परोक्षत्वसाधने च सिद्धसाधनम् ; स्वार्थग्रहणशक्तिलक्षणाया लब्धेर्मनसश्च भावकरणस्य छद्मस्थाप्रत्यक्षत्वात् । उपयोगलक्षणं तु भावकरणं नाप्रत्यक्षम् ; स्वार्थग्रहणव्यापारलक्षणस्यास्य स्वसंवेदनप्रत्यक्षप्रसिद्धत्वात् 'घटादिद्वारेण घटादिग्रहणे उपयुक्तोऽप्यहं घटं न पश्यामि पदार्थान्तरं तु पश्यामि' इत्युपयोगस्वरूपसंवेदनस्याखिलजनानां सुप्रसिद्धत्वात् । क्रियायाः करणाविनाभावित्वे चात्मनः स्वसंवित्तौ किङ्करणं स्यात् ? स्वात्मैवेति चेत्, अर्थेपि स एवास्तु किमदृष्टान्यकल्पनया ? ततश्चक्षुरादिभ्यो विशेषमिच्छता ज्ञानस्य कर्मत्वेनाप्रतीतावप्यध्यक्षत्वमभ्युपगन्तव्यम् । फलज्ञानात्मनो: फलत्वेन कर्तृत्वेन चानुभूयमानयोः प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमे करणज्ञाने करणत्वेनानुभूयमानेपि सोस्तु विशेषाभावात् । न चाभ्यां सर्वथा करणज्ञानस्य भेदो उपयोग के स्वरूप की प्रतीति या ( अनुभव ) संपूर्ण जीवों को आया करती है। आप मीमांसकों का यह आग्रह हो कि क्रिया का तो करण के साथ अविनाभाव हैबिना करण के क्रिया होना अशक्य है सो बताईये-जब स्वयं प्रात्मा को (अपने स्वरूप को) ही प्रात्मा जानेगी तब वहां उस क्रिया का करण कौन बनेगा ? यदि कहा जाय कि वहां आत्मा ही स्वयं करण बन जायगी सो ही बात पदार्थों में भी घटित हो जायगी अर्थात् पदार्थ को जानते समय भी ज्ञान स्वयं ही करण बन जायगा । फिर क्यों अदृष्ट ऐसे द्वितीय करणज्ञान की कल्पना करते हो, इसलिये सार यह निकलता है कि यदि आप चक्षु आदि इन्द्रियों से ज्ञानरूप करण में विशेषता मानते हैं तो आपको कर्मपने से प्रतीत नहीं होने पर भी ज्ञान में प्रत्यक्षता-स्वसंविदितता ही मानना चाहिये। आप लोग फलज्ञान (प्रमिति) और आत्मा को फल और क रूप से प्रत्यक्ष होना तो स्वीकार करते ही हैं-अर्थात् फलज्ञान का फलरूप से अनुभव होता है और आत्मा का कर्त्तापने से अनुभव होता है अत: ये फलज्ञान और प्रात्मा दोनों प्रत्यक्ष हैं ऐसा तो आप मानते ही हैं, अतः इसके साथ ही करणज्ञान करणरूप से अनुभव में आता है इसलिये वह भी प्रत्यक्ष है ऐसा मानना चाहिये, और कोई अन्य विशेषता तो है नहीं। अपने स्वरूप से तो करण भी कर्ता आदि की तरह प्रतिभासित होता ही है। एक बात यह भी है कि फलज्ञान और आत्मा इन दोनों से सर्वथा भिन्न करणज्ञान नहीं है, यदि सर्वथा भेद मानोगे तो अन्य मत जो नैयायिक का है उसमें आपका-मीमांसकों का प्रवेश हुआ माना जायगा, इस दोष को हटाने के लिये आत्मा आदि से ज्ञान का कथंचित् भेद स्वीकार करते हो तब तो ज्ञान में सर्वथा अप्रत्यक्षपने का एकान्त मानवा कल्याणकारी नहीं होगा, क्योंकि प्रत्यक्षस्वभाववाले फलज्ञान और आत्मज्ञान से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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