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________________ ३२४ प्रमेयकमलमार्तण्डे तदप्रतीतावपि कर्तृत्वेनास्य प्रतीतेः प्रत्यक्षत्वे ज्ञानस्यापि करणत्वेन प्रतीतेः प्रत्यक्षतास्तु विशेषाभावात् । अथ करणत्वेन प्रतीयमानं ज्ञानं करणमेव न प्रत्यक्षम् ; तदन्यत्रापि समानम् । किञ्च, प्रात्मनः प्रत्यक्षत्वे परोक्षज्ञानकल्पनया कि साध्यम् ? तस्यैव स्वरूपवबाह्यार्थग्राहकत्वप्रसिद्ध : ? कर्ता : करणमन्तरेण क्रियायां व्यापारासम्भवात्करणभूतपरोक्षज्ञानकल्पना नानथिकेत्यप्यसाधीय:; मनसश्चक्षुरादेश्चान्तर्बहिः करणस्य सद्भावात् ततोऽस्य विशेषाभावाच । अनयोरचेतनत्वात्प्रधानं चेतनं ग्राहक होता है। यह बात प्रसिद्ध है ही। अर्थात् आत्मा ही बाह्य पदार्थों को जानते समय करणरूप हो जाती है । मीमांसक-कर्ता को करण के बिना क्रिया में व्यापार करना शक्य नहीं है, अतः करणभूत परोक्ष ज्ञान की कल्पना करना व्यर्थ नहीं है। जैन - यह कथन भी असाधु है । देखिये-कर्ताभूत प्रात्मा का करण तो मन और इन्द्रियां हुआ करती हैं, अन्तःकरण तो मन है और बहिःकरण स्वरूप स्पर्शनादि इन्द्रियां हैं । आपके उस परोक्षभूत ज्ञानकरण से इन करणों में तो भिन्नता नहीं है; अर्थात् यदि आपको परोक्ष स्वभाव वाला ही करण मानना है तो मन आदि परोक्षभूत करण हैं ही। मीमांसक-मन और इन्द्रियां करण तो हैं किन्तु वे सब अचेतन हैं । एक मुख्य चेतन स्वरूप करण होना चाहिये । जैन-यह बात ठीक नहीं है, देखिये - भावमन और भावेन्द्रियां तो चैतन्य स्वभाव वाली हैं, यदि आप उन भावमन और भावेन्द्रियों को परोक्ष सिद्ध करना चाहते हो तब तो हमारे लिये सिद्ध साधन होवेगा, क्योंकि हम जैन स्वपर को जानने की शक्ति जिसकी होती है ऐसी लब्धिरूप भावेन्द्रिय को तथा भावमन को चेतन मानते हैं। यदि इनमें आप परोक्षता साधते हो तो हमें कोई बाधा नहीं है, क्योंकि हम छद्मस्थों को-(अल्पज्ञानियों को)-इनका प्रत्यक्ष होता ही नहीं है, मतलब कहने का यह है कि लब्धिरूप करण और भावमन तो परोक्ष ही रहते हैं । हां-जो उपयोग लक्षणवाला भावकरण है वह तो स्व और पर को ग्रहण करने के व्यापाररूप होता है, अतः यह स्वयं को प्रत्यक्ष होता रहता है-सो कैसे ? यह बताते हैं- जब चक्षु आदि इन्द्रियों द्वारा घट आदि को ग्रहण करने की अोर जीव व्यापारवाला होता है-अर्थात् झुकता है तब वह कहता है कि मैं घट को तो देख नहीं रहा हूं, अन्य पदार्थ को देख रहा हूं-अर्थातु मैं हाथ से घट को उठा रहा हूं किन्तु लक्ष्य मेरा अन्यत्र है-इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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