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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे तस्यानाद्यनन्तत्वसिद्धिः, सर्वदा सतोऽभिव्यक्त स्तामन्तरेणानुपपत्त: । पृथिव्यादिसामान्यवत् । तथा च "परलोकिनोऽभावात्परलोकाभावः" [ ] इत्यपरीक्षिताभिधानम् । प्रागसतश्चैतन्यस्याभिव्यक्ती प्रतीतिविरोधः, सर्वथाप्यसतः कस्यचिदभिव्यक्त्यप्रतीतेः । न चैवंवादिनो व्यञ्जककारकयोर्भेदः; 'प्राक्सतः स्वरूपसंस्कारकं हि व्यञ्जकम्, असत: स्वरूपनिर्वर्तकं कारकम्' इत्येवं तयोर्भेदप्रसिद्धिः । व्यापार के पहिले भी थी ऐसा सिद्ध नहीं होता, इसलिये वे मीमांसक आदि के शब्द के अभिव्यक्त वाद का निरसन करते हैं, इसी प्रकार खुद चार्वाक के चैतन्य अभिव्यक्तिवाद का भी निरसन अवश्य हो जाता है, क्योंकि जैसे तुम चार्वाक ने शब्द की अभिव्यक्ति के बारे में प्रश्न किये हैं वैसे ही वे यौग या हम जैन आप से चैतन्य अभिव्यक्ति के बारे में प्रश्न करेंगे कि भूतचतुष्टय से अभिव्यक्त होने के पूर्व चैतन्य की सत्ता तो सिद्ध होती नहीं है, तथा वह प्रकट होने से पूर्व अनभिव्यक्त चैतन्य कैसे और कहां पर था ? इत्यादि प्रश्नों का ठीक उत्तर न होने से "भूतों से चैतन्य प्रकट होता है" यह चार्वाक का कथन असत्य ठहरता है। चार्वाक को यह बताना होगा कि "चैतन्य की अभिव्यक्ति होती है" सो वह सद्भूत चैतन्य की होती है कि असद्भूत चैतन्य की होती है ? अथवा सदसद्भूत चैतन्य की होती है ? प्रथम पक्ष के अनुसार तो चैतन्य आत्मा अनादि अनंतरूप नित्य ही सिद्ध हो जाता है, क्योंकि जो सर्वदा सद्र प रहकर व्यक्त होगा वह तो अनादि अनंत ही कहलावेगा, नहीं तो उसके बिना वह सदु ही क्या कहलावेगा । जैसे पृथिवी आदि भूतों के सामान्य धर्म पृथिवीत्व आदि को अनादि अनंत माना है वैसे ही चैतन्य सामान्य को अनादि अनंत मानना चाहिये, इस प्रकार अनादि अनंत चैतन्य प्रात्मा की सिद्धि होने पर "परलोक में जाने वाला ही कोई नहीं अत: परलोक का अभाव है" इत्यादि कथन असत्य ठहरता है। द्वितीय पक्ष-“पहिले चैतन्य असत् रहकर ही भूतों से अभिव्यक्त होता है" ऐसा कहा जावे तो विरोध दोष होगा क्योंकि सर्वथा असत् की कहीं पर भी अभिव्यक्ति होती हुई नहीं देखी है, तथा इस प्रकार सर्वथा असत् की अभिव्यक्ति मानने वाले प्राप चार्वाक के मत में व्यञ्जक कारण और कारक कारण इन दोनों में भी कुछ अन्तर ही नहीं रहेगा, व्यञ्जक का लक्षण "प्राक् सतः स्वरूप संस्कारकं हि व्यञ्जकम्" पहिले से जो सत्-मौजूद है उसी में कुछ स्वरूप का संस्कार करना व्यञ्जक कारण का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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