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भूतचैतन्यवादः
"पृथिव्य (व्या)पस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि, तत्समुदये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञाः तेभ्यश्चैतन्यम्" [ ] इत्यत्र 'अभिव्यक्तिमुपयाति' इति क्रियाध्याहारादतः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिको हेतुरिति; शब्दसामाज्याभिव्यक्तिनिषेधेनास्य चैतन्याभिव्यक्तिवादस्य विरोधाच्च ।
किंच, सतोऽभिव्यक्तिश्चैतन्यस्य, असतो वा स्यात्, सदसद् पस्य वा ? प्रथमकल्पनायाम्
से चैतन्य होता है, इस वाक्य में अभिव्यक्ति क्रिया का अध्याहार करते हैं, अर्थात् "पृथिव्यप्तेजोवायुरिति तत्त्वानि, तत्समुदये शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञाः, तेभ्यश्चैतन्यं" इस सूत्र में "अभिव्यक्तिमुपयाति" इस क्रिया का अध्याहार करने से चैतन्य प्रकट होता है ऐसा अर्थ होता है, तब तो वह पूर्वोक्त जैन के द्वारा कहा गया असाधारणलक्षणविशेषविशिष्टत्व हेतु संदिग्ध विपक्ष व्यावृत्ति वाला हो जाता है।
भावार्थ-पृथिवी आदि से चैतन्य प्रकट होता है तो उसमें असाधारण धर्म रह सकता है, अर्थात् पृथिवी आदि से मात्र चैतन्य प्रकट होता है तो उन पृथिवी आदि से असाधारण-पृथिवी आदि में नहीं पाये जाने वाले धर्म चैतन्य में हो सकते हैं, क्योंकि पृथिवी आदि से वह चैतन्य प्रकट हुआ है, न कि पैदा हुआ है, इसलिये शंका बनी रहेगी कि क्या मालूम पृथिवी आदि से व्यक्त हुए इस चैतन्य में पृथिवी आदि के साधारण ही धर्म हैं अथवा असाधारण लक्षण हैं ? इसलिये जैन के द्वारा पहिले आत्मा को भूतचतुष्टय से पृथक् सिद्ध करने के लिये दिया गया असाधारण लक्षण विशेषविशिष्ट हेतु शंकित हो जाता है न कि सर्वथा खंडित ।। चार्वाक संदिग्ध विपक्ष व्यावृत्ति वाले हेतु का निषेध करते हैं उन्होंने नैयायिक के आकाश से शब्द सामान्य की अभिव्यक्ति होने वाले मतका निषेध किया है, उसी प्रकार से यहां पर भी भूतचतुष्टय से चैतन्य की अभिव्यक्ति होने का निषेध होता है।
विशेषार्थ-यौग-नैयायिक और वैशेषिक शब्द की उत्पत्ति आकाश से होतो है ऐसा मानते हैं सो उस मान्यता का चार्वाक भी खण्डन करता है-चार्वाक का कहना है कि आकाश से विलक्षण लक्षण वाला शब्द कैसे हो सकता है, अर्थात नहीं हो सकता। आकाश से शब्द सामान्य अभिव्यक्त होता है ऐसा नैयायिक आदिक है तो वह भी बनता नहीं, क्योंकि जैसे दीपक आदि के द्वारा रात्रि में घट आदि पदार्थ प्रकटप्रकाशित किये जाते हैं, वैसे कोई शब्द आकाश में रहकर तालु आदि के द्वारा प्रकट होता हुआ माना नहीं जा सकता, अर्थात् दीपक से प्रकाशित होने के पहिले जैसे घट आदि पदार्थों की ससा तो सिद्ध ही रहती है, वैसे ही शब्द की सत्ता तालु आदि के
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