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प्रमेयक मलमार्त्तण्डे
तथाहि न शरीरं चैतन्यगुणाश्रयो भूतविकारत्वाद् घटादिवत् । चैतन्यं वा शरीरविशेषगुणो न भवति सति शरीरे निवर्त्त मानत्वात् । ये तु शरीरविशेषगुणा न ते तस्मिन्सति निवर्त्तन्ते यथा रूपादयः, सत्यपि तस्मिन्निवर्त्तते च चैतन्यम्, तस्मान्न तद्विशेषगुणः ।
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तथा नेन्द्रियाणि चैतन्यगुणवन्ति कररणत्वाद्भूतविकारत्वाद्वा वास्यादिवत् । तद्गुणत्वे च चैतन्यस्येन्द्रियविनाशे प्रतीतिर्न स्याद्गुरिणविनाशे गुणस्याप्रतीतेः । न चैवम्, तस्मान्न तद्गुणः । तथा च प्रयोगः - स्मरणादि चैतन्यमिन्द्रियगुणो न भवति तद्विनाशेप्युत्पद्यमानत्वात्, यो यद्विनाशेप्युत्पद्यते स जैन - यह कथन मनोरथ मात्र है, ज्ञान शरीर आदि का गुण है यह बात ही बिलकुल असिद्ध है । इसी को अनुमान से सिद्ध करके बताते हैं । शरीर चैतन्य गुणका आश्रय नहीं है क्योंकि वह शरीर तो भूतों का ( पृथिवी आदि का ) विकार ( पर्याय ) है, जैसे-घट आदि पदार्थ भूतों के विकार होने से चैतन्यगुण के श्राश्रय नहीं होते हैं, और भी सुनिये - चैतन्य शरीर का विशेष गुण नहीं है, क्योंकि शरीर के मौजूद रहते हुए भी वह निकल जाता है, जो शरीर के विशेष गुण होते हैं, वे शरीर के विद्यमान रहते हुए निकल कर नहीं जाते हैं जैसे कि रूपादिकगुण, शरीर के रहते हुए चैतन्य निवृत्त होकर चला जाता है, अतः वह शरीर का विशेषगुण नहीं है ।
जैसे शरीर ज्ञानगुण का आधारभूत सिद्ध नहीं हुआ उसी प्रकार नेत्र आदि इन्द्रियां भी चैतन्यगुण वाली सिद्ध नहीं होती हैं । क्योंकि इन्द्रियां तो करण हैं तथा भूतों का विकार स्वरूप भी हैं, जैसे वसूला आदि करण हैं । यदि चैतन्य इन्द्रियों का गुण होता तो इन्द्रियों के नाश होने पर चैतन्य की प्रतीति नहीं होनी चाहिये, गुणी का नाश होने पर गुणों की प्रतीति नहीं होती है, इन्द्रियों का नाश होनेपर भी चैतन्य का प्रभाव दिखाई नहीं देता है, अतः ज्ञान ( चैतन्य ) इन्द्रियों का गुण नहीं है । अनुमान प्रयोग से सिद्ध है कि स्मृति सुख आदि स्वरूप वाला चैतन्य इन्द्रियों का गुण नहीं होता है क्योंकि इन्द्रियों के नष्ट होने पर भी वह उत्पन्न होता रहता है, जो जिसके विनाश होने पर भी पैदा होता रहता है वह उसका गुरण ही नहीं होता है, जैसे - वस्त्र के नष्ट होने पर भी घट के रूपादिक गुण नष्ट नहीं होते हैं । इन्द्रियों का नाश होने पर भी स्मरण आदि का नाश तो होता नहीं, अतः वह ज्ञान उन इन्द्रियों का गुण नहीं है, यदि चैतन्य को इन्द्रियों का गुण माना जाय तो करण विना क्रिया की प्रतीति नहीं होगी, अर्थात् इन्द्रियां तो गुणी हो चुकी हैं चैतन्य उसका गुण है तो इन्द्रियां कर्त्तापने को प्राप्त हुईं, फिर "जानाति " जानता है इस क्रिया का करण कुछ
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