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________________ भूतचैतन्यवादः स्वातन्त्र्यं हि कर्तृत्वलक्षणं तदैव च ज्ञानक्रियया व्याप्यत्वोपलब्धेः कर्मत्वं चाविरुद्धम्, लक्षणाधीनत्वाद्वस्तुव्यवस्थायाः । तथानुमानेनात्मा प्रतीयते । श्रोत्रादिकरणानि कर्तृ प्रयोज्यानि करणत्वाद्वास्यादिवत् । न चात्र श्रोत्रादिकरणानामसिद्धत्वम् ; 'रूपरसगन्धस्पर्शशब्दोपलब्धिः करणकार्या क्रियात्वाच्छिदिक्रियावत्' इत्यनुमानात्तत्सिद्ध: । तथा शब्दादिज्ञानं क्वचिदाश्रितं गुणत्वाद्र पादिवत् इत्यनुमानतोप्यसौ प्रतीयते । प्रामाण्यं चानुमानस्याग्रे समर्थयिष्यते । शरीरेन्द्रियमनोविषयगुणत्वाद्विज्ञानस्य न तद्व्यतिरिक्ताश्रयाश्रितत्वम्, येनात्मसिद्धिः स्यादित्यपि मनोरथमात्रम् ; विज्ञानस्य तद्गुणत्वासिद्धः । कर्मरूप भी बन जाता है। वस्तु व्यवस्था तो लक्षण के आधीन हुआ करती है, अर्थात् वस्तु का जैसा असाधारण स्वरूप रहता है उसी के अनुसार उसे कहा जाता है। इस अनुमान के द्वारा भी प्रात्मा प्रतीति में आता है-श्रोत्र आदि इन्द्रियां कर्ता के द्वारा प्रयोजित की जाती हैं, क्योंकि वे करण हैं। जैसे कि वसूला आदि करण हैं। अत: वे देवदत्त आदि कर्ता के द्वारा प्रयोग में आते हैं-वैसे ही इन्द्रियां करण होने से उनका प्रयोक्ता कोई अवश्य होगा, कर्ण आदि इन्द्रियों में करणपना प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि रूप रस गंध स्पर्श शब्द इन सबकी जो उपलब्धि रूप क्रिया होती है वह इन्द्रियों द्वारा होती है, अतः यह करण की कार्य रूप है, जैसे कि छेदन क्रिया एक कार्य है । इस अनुमान से इन्द्रियों में करणपना सिद्ध होता है । आत्मा को सिद्ध करने वाला और भी दूसरा अनुमान प्रयोग इस प्रकार है-शब्दादि का जो ज्ञान होता है-शब्द सुन कर जो अर्थ बोध होता है अथवा अन्य कोई भी इन्द्रियों के विषयों का जो ज्ञान होता है वह कहीं पर तो अवश्य ही आश्रित है, क्योंकि वह शब्दादि का ज्ञान एक गुण है, जो गुण होता है वह कहीं आश्रित जरूर रहता है, जैसे कि रूप आदिक गुण कहीं घट आदि में आश्रित रहते हैं, जहां पर वह ज्ञान गुण प्राश्रित है वही तो आत्मा है, अनुमान में प्रमारणता का हम आगे समर्थन करने वाले हैं। चार्वाक ---ज्ञान गुण का प्राश्रय तो शरीर है, इन्द्रियां हैं, मन है और विषयभूत पदार्थ हैं । ये ही सभी ज्ञान के आश्रय भूत देखे जाते हैं। इन शरीरादि से भिन्न और कोई दूसरा आश्रय है नहीं जिससे कि आत्मा की सिद्धि हो जाय, अर्थात् ज्ञान का आश्रय सिद्ध करने के लिये प्रात्मा को सिद्ध करना जरूरी नहीं, वह तो शरीर आदि रूप आश्रय में ही रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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