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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
चैतन्यमिति । न चायमसिद्धो हेतुः ; चैतन्यस्य जना ( ज्ञान ) दर्शनोपयोगलक्षणत्वात्, भूपयः पावकपवनानां धारणे रद्रवोष्णतास्वभावानां तल्लक्षणाभावात् । न हि भूतानि ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणानि श्रस्मदाद्यनेकप्रतिपत्तृप्रत्यक्षत्वात् । यत्पुनस्तल्लक्षणं तन्नास्मदाद्यनेकप्रतिपत्तृप्रत्यक्षम् यथा चैतन्यम्, तथा च भूतानि तस्मात्तथैवेति ।
ननु ज्ञानाद्य ुपयोगविशेषव्यतिरेकेणापरस्य तद्वतः प्रमाणतोऽप्रतीतेः प्रसिद्धमेवासाधारणलक्षण विशेष विशिष्टत्वम्; तथाहि न तावत्प्रत्यक्षेणासी प्रतीयते; रूपादिवत्तत्स्वभावानवधारणात् ।
पाया जाता है, जो जिसकी अपेक्षा असाधारण लक्षण वाला होता है वह वास्तविक उससे पृथक् ही होता है, जैसे कि अग्नि से पृथक् लक्षणवाला वायु है अतः वह उससे भिन्न तत्त्व है, पृथिवी प्रादिकी अपेक्षा चैतन्य भी असाधारण लक्षण से लक्षित है अतः वह भी उससे भिन्न तत्व है यह असाधारणलक्षणरूप विशेष हेतु प्रसिद्ध भी नहीं है क्योंकि चैतन्यलक्षण सर्वथा असाधारण है, देखिये - चैतन्यका लक्षण ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगस्वरूप है और भू, जल, अग्नि, वायु इनका क्रमशः धारण. द्रवण, उष्णता और ईरण स्वरूप है, इसलिये आत्मा के असाधारण लक्षण का इनमें अभाव है । भूमि आदि स्वरूप जो भूतचतुष्टय हैं वे ज्ञान - दर्शन - उपयोगलक्षण वाले नहीं हैं, क्योंकि वे सब हम जैसे अनेक व्यक्तियों के द्वारा प्रत्यक्ष किये जाते हैं, जिस तत्त्व में ज्ञानोपयोग आदि लक्षण रहते हैं वे पदार्थ हमारे जैसे अनेक जाननेवाले व्यक्तियों के द्वारा प्रत्यक्ष नहीं किये जा सकते हैं, जैसा कि चैतन्य प्रत्यक्ष नहीं होता है, पृथिवी प्रादि भूतविशेष हमारे प्रत्यक्ष तो होते हैं अतः वे ज्ञानादिस्वभाववाले सिद्ध नहीं होते हैं । इस प्रकार अनुमान से ज्ञान का उपादान पृथक् ही सिद्ध हुआ ।
चार्वाक - ज्ञान और दर्शन उपयोगविशेष को छोड़कर अन्य कोई पृथक् आत्मा नामका पदार्थ सिद्ध नहीं होता है कि जिसमें वे ज्ञानादि रहते हों, अतः असाधालक्षण विशेष विशिष्टत्व हेतु प्रसिद्ध दोष युक्त है, मतलब -ज्ञानादि से भिन्न श्रात्मा तो कोई उपलब्ध होता नहीं, अतः आत्मा का लक्षण ज्ञान दर्शन है इत्यादि कहकर उसको भूतों से प्रसाधारणलक्षण से लक्षित बताना व्यर्थ है, देखो - आपका प्रात्मतत्त्व प्रत्यक्ष से तो प्रतीत होता नहीं, क्योंकि उसका रूप आदि के समान स्वभावों का अवधारण हो नहीं हो पाता । अनुमान से आत्मा को सिद्ध नहीं कर सकते हैं, क्योंकि अनुमान को हम प्रमाणभूत मानते हो नहीं हैं, तथा जबर्दस्ती मान भी लेवें तो भी आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करनेवाला कोई अनुमान ही नहीं है ।
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