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________________ साकारज्ञानवाद: २६१ किश्व ज्ञानगताशी जाद्याकारात् क्षणिकत्वाद्य कारः किं भिन्नः, अभिशो वा ? भिन्नच ेत्; नोलाद्याकारस्याक्षणिकत्व प्रसङ्गस्तद्वय (वृत्तिलक्षणत्वात्तस्य । अथाभिन्नः; तर्हि ततोऽर्थस्य नीलत्वादिवत् क्षणिकत्वादेरपि प्रसिद्धेस्तदर्थमनुमानमनर्थकम् । तदसिद्धो वा नीलत्वादेरप्यतः सिद्धिर्न स्यादविशेषात् । ननु चानेकस्वभावार्थाकारत्वेपि ज्ञानस्य यस्मिन्न वांशे संस्कारपाटवान्निश्र्चयोत्पाद तदुत्पत्ति, तदाकार, और तदध्यवसाय ये तीनों ही हैं किन्तु वह ज्ञान सत्य नहीं कहलाता, अर्थात् पीलिया रोगी को सफेद वस्तु भी पीली दिखाई देती है सो उसका वह ज्ञान तदुत्पत्ति- तदाकार और तदध्यवसाय वाला है अर्थात् उसी शंख से वह उत्पन्न हुआ है, उसी शंख के आकार को धारण करता है तथा उसी शंख को जानता है, अतः उस समनन्तर प्रत्यय में प्रामाण्य मानना पड़ेगा, किन्तु ऐसा ज्ञान सत्य नहीं कहलाता, इसलिये ये तदुत्पत्ति प्रादि तीनों हेतु ज्ञान के विषयों का नियामकपना सिद्ध नहीं करते हैं, यदि बौद्ध का यही हठाग्रह हो कि साकारता के कारण ही ज्ञान में प्रामाण्य आता है तो स्वरूप संवेदन में- अपने आपको जानने में प्रवृत्त हुए ज्ञान में प्रमाणता नहीं घटित हो सकेगी, क्योंकि उसमें तदाकारता तो है नहीं ॥ पुन: बौद्ध से हम पूछते हैं कि ज्ञान में होने वाले जो नील आदि आकार हैं उनसे क्षणिकत्व आदि प्रकार भिन्न हैं कि अभिन्न हैं ? यदि भिन्न माने जावें तो उनसे पृथक् हुए नीलादि आकार अक्षणिक - नित्य बन जावेंगे, क्योंकि क्षणिकत्व की जहां व्यावृत्ति है वहां क्षणिकत्व रहता ही है | ज्ञानगत नीलादि श्राकारों से यदि क्षणिकत्व आदि धर्म प्रभिन्न हैं ऐसा माना जाये तो वह नीलाकार ज्ञान जैसे नील पदार्थ के नीलत्व को जानता है वैसे ही वह उसी पदार्थ के प्रभिन्न धर्म क्षणिकत्व को भी जान लेगा, तब फिर उस क्षणिकत्व को सिद्ध करने के लिये अनुमान का प्रयोग करना ही व्यर्थ होगा । भावार्थ:- बौद्ध वस्तुगत नीलत्वादि धर्मोका ग्रहण होना तो प्रत्यक्ष के द्वारा मानते हैं, और क्षणिकत्वादि का ग्रहण अनुमान के द्वारा होना मानते हैं । इसलिये श्राचार्य ने यहां पर पूछा है कि पदार्थ का श्राकार जब ज्ञान में आता है तब उसके अन्य धर्म अभिन्न होने से उस प्रत्यक्ष ज्ञान में आ ही जावेंगे, अतः "सर्वं क्षणिकं सत्वात् " सभी पदार्थ क्षणिक हैं क्योंकि वे सदुरूप हैं इत्यादि अनुमान के द्वारा उस नील आदि वस्तु के क्षणिक धर्म को जानने की कोई श्रावश्यकता नहीं रहती है, क्योंकि वे प्रत्यक्ष के द्वारा ग्रहीत हो जायेंगें । यदि उस अभिन्न क्षणिकत्व को प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं जानता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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