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________________ २६. प्रमेयकमलमार्तण्डे प्रतिनियतार्थनियामकत्वेऽर्थवदुपादानेप्यध्यवसायप्रसङ्गः, अन्यथोभयत्राप्यसौ मा भूद्विशेषाभावात् । न च तज्जन्मादित्रयसद्भावेप्यर्थप्रतिनियमः, कामलाद्य पहतचक्षुषः शुक्ले शङ्ख पीताकारज्ञानादुत्पन्नस्य तद्र पस्य तदाकाराध्यवसायिनो विज्ञानस्य समनन्तरप्रत्यये प्रामाण्यप्रसङ्गात् । न चैवंवादिनोविज्ञानस्य स्वरूपे प्रमाणता घटते तत्र सारूप्याभावात् । बौद्ध-यद्यपि ज्ञान पदार्थ और इन्द्रिय दोनों से उत्पन्न होता है तो भी वह पदार्थाकार को ही धारण करता है अन्य कारणों के आकारों को नहीं, जैसे कि पुत्र अनेक कारणों से उत्पन्न होता है किन्तु वह माता पिता की प्राकृति को ही धारण करता है अन्य की नहीं ? जैन-यह कथन असंगत है, पुत्र का ऐसा दृष्टान्त यहां पर देने से ज्ञान को अपने उपादान कारण का ही आकार धारण करने का प्रसंग आयेगा, क्योंकि पुत्र ने भी जैसे अपने उपादान कारणभूत पिता माता का आकार ही धारण किया है वैसे ही ज्ञान को भी होना चाहिये, विषयभूत नीलादि पदार्थ तो ज्ञान के आलम्बन स्वरूप कारण हैं और पूर्वज्ञान उपादान कारण है ये दोनों ही प्रत्यासत्ति विशेष सहित हैं, अर्थात् इन दोनों से ही समानरूप से वह समनन्तरज्ञान पैदा हुआ है अतः इस ज्ञान को दोनों के ही-पूर्वज्ञान और पदार्थ के अाकारों को धारण करना होगा, तथा दोनों को ही जानना भी होगा, क्योंकि पदार्थ के समान पूर्वज्ञान भी उसका उपादान है ही, कोई विशेषता नहीं है। बौद्ध ज्ञान पदार्थ और पूर्व ज्ञान दोनों से ही पैदा हना है किन्तु अध्यवसाय का नियम होने से नियतमात्र अर्थ को ही ज्ञान जानता है । जैन- यह कथन गलत है, जब पदार्थ के समान पूर्वज्ञान भी उपादान है तब वह विवक्षित ज्ञान अपने उपादान को क्यों नहीं जानता है, अन्यथा दोनों को नहीं जानना चाहिये। बौद्ध-जहां तदुत्पत्ति, तदाकार और तदध्यवसाय ये तीनों रहते हैं वहां पर ही पदार्थ के जानने का प्रतिनियम बनेगा। जैन-ऐसी बात भी नहीं है, क्योंकि जिसके नेत्रों में कामलादि रोग हो गया है ऐसे व्यक्ति को सफेद शंख में पीलेपने का ज्ञान होता है, सो उस ज्ञान में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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