SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७८ प्रमेयकमलमार्तण्डे हारस्याऽस्खलद्र पस्य प्रतीते । ततस्तदन्यथानुपपत्तनिराकारं तत् । न चाकाराधायकस्य दूरादितया तया व्यवहारो युक्तः दर्पणादौ तथानुपलम्भात् । दीर्घस्वापवतश्च प्रबोधचेतसो जनकस्य जाग्रद्दशाचेतसो दूरत्वेनातीतत्वेन चात्रापि दूरातीतादिव्यवहारानुषङ्गः स्यात् । किञ्च, अर्थादुपजायमानं ज्ञानं यथा तस्य नीलतामनुकरोति तथा यदि जडतामपि ; तहि जडमेव तत् स्यादुत्तरार्थक्षणवत् । अथ जडतां नानुकरोति; कथं तस्या ग्रहणम् ? तदग्रहणे नीलाहै यह निकट है ऐसा व्यवहार शक्य नहीं होता। ज्ञान को साकार मानने में यह भो एक बड़ा विचित्र दोष आता है, देखिये - कोई दीर्घकाल तक सोया था जब वह जाग कर उठा तब उसे सोने के पहिले जाग्रदशा में जिस किसी घट आदि का तदाकार ज्ञान था वह अब निद्रा के बाद बहुत ही दूर हो गया है तथा व्यतीत भी हो गया है, अतः उस याद आये हुए घट ज्ञान में दूर और अतीत का भान होना चाहिये ।।। भावार्थ-जब वस्तु का आकार ज्ञान में मौजूद है तब कुछ समय व्यतीत होने पर वह वस्तु हमें दूरपने से मालूम होनी चाहिये, देवदत्त दीर्घनिद्रा लेकर उठा, उसका निद्रित अवस्था के पहिले का हुआ जो ज्ञान है वह अब दूर हो चुका है, अत: उसको ऐसा प्रतिभास होना चाहिये कि मेरी वह पुस्तक बहुत दूर है अथवा वह ज्ञान दूर है इत्यादि, किन्तु ऐमी प्रतीति किसी को भी नहीं होती है, अत: ज्ञान को साकार मानना ठीक नहीं है। ___ बौद्धों ने ज्ञान को पदार्थ से उत्पन्न होना भी स्वीकार किया है वह ज्ञान पदार्थ से उत्पन्न होकर जैसे उस नील आदि के आकार को धारण करता है वैसे ही यदि वह उस पदार्थ के जड़पने को भी धारण करता है तो वह ज्ञान स्वयं जड़ बन जावेगा, जैसे जड़ पदार्थ स्वयं उत्तर क्षण में दूसरे जड़ पदार्थों को पैदा कर देते हैं वैसे ही ज्ञान पदार्थ से पैदा होने के कारण जड़ रूप को भी धारण करेगा, यदि कहो कि ज्ञान जड़ाकार नहीं बनता है तो वह उस पदार्थ की जड़ता को कैसे जान सकेगा, क्योंकि उस रूप हुए विना वह उसे जान नहीं सकता, इस प्रकार यदि जड़ता को नहीं जानता है तो वह ज्ञान उसके नील आदि प्राकार को भी नहीं जान सकेगा, जड़ता को नहीं जाने और नील आकार को जाने ऐसी भेदभाव की बात कहो तब तो नील और जड़ धर्म में भिन्नता माननी पड़ेगी अथवा एक ही वस्तु में दो विरुद्ध धर्म मानने से अनेकान्त की वहां स्थिति आ जावेगो, क्योंकि इस प्रकार की मान्यता में एक ही नील वस्त्र आदि में उस का एक नील धर्म तो ग्राह्य हो जाता है और दूसरा जड़ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy