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साकारज्ञानवादः
एतेन बौद्धोप्याकारवत्त्वेन ज्ञाने प्रामाण्यं प्रतिपादयन्प्रत्याख्यातः । प्रत्यक्षविरोधाच; प्रत्यक्षेण विषयाकाररहितमेव ज्ञान प्रतिपुरुषमहमहमिकया घटादिग्राहकमनुभूयते न पुनर्दर्पणादिवत्प्रतिबिम्बाकान्तम् । विषयाकारधारित्वे च ज्ञानस्यार्थे दूरनिकटादिव्यवहाराभावप्रसङ्गः । न खलु स्वरूपे स्वतोऽभिन्नेऽनुभूयमाने सोस्ति, न चैवम् ; 'दूरे पर्वतो निकटे मदीयो बाहुः' इति व्यव
__ सांख्य के द्वारा माना गया ज्ञान का अचेतनपना तथा आकारपना खंडित होने से ही बौद्ध संमत साकार ज्ञान का भी खंडन हो जाता है, उन्होंने भी ज्ञान में प्रमाणता का कारण विषयाकारवत्त्व माना है, अर्थात् ज्ञान पदार्थ के आकार होकर ही पदार्थ को जानता है और तभी वह प्रमाण कहलाता है, यह ज्ञान में तदाकारपना प्रत्यक्ष से बाधित होता है, प्रत्येक पुरुष को अपना अपना ज्ञान घटादि पदार्थों के प्राकार न होकर ही उन्हें ग्रहण करता हुआ अनुभव में आ रहा है, न कि प्रतिबिम्ब से व्याप्त दर्पण के समान अनुभव में आता है । यदि ज्ञान पदार्थाकार को धारण करता है ऐसा स्वीकार किया जावे तो पदार्थ में जो दूर और निकटपने का व्यवहार होता है वह नहीं हो सकेगा, क्योंकि ज्ञान स्वयं उस रूप हो गया है । वह आकार उस ज्ञान से अभिन्न अनुभव में आने पर उसमें क्या दूरता एवं क्या निकटता प्रतीत होगी; अर्थात् किसी प्रकार भी आसन्नदूरता का भेद नहीं रहेगा, किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि यह दूरवर्तीपना और प्रत्यासन्नपना सतत ही अनुभव में आता रहता है देखो-“यह पर्वत दूर है, यह मेरा हाथ निकट है" इत्यादि प्रतिभास बिल्कुल स्पष्ट और निर्बाधरूप से होता हुअा उपलब्ध होता ही है । इसलिये ज्ञान में प्रतिभासित होनेवाले इस दूर निकट व्यवहार से ही सिद्ध होता है कि ज्ञान पदार्थ के आकार रूप नहीं होकर ही उसे जानता है, अतः पदार्थ के आकार के धारक उस ज्ञान में दूर आदि रूप से व्यवहार होना शक्य नहीं है, जैसा कि दर्पण में प्रतिबिम्बित हुए आकार में यह दूर
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