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अचेतनज्ञानवाद:
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व्यतिरेके भङ गुरत्वप्रसङ्गः प्रधानेपि समानः। व्यक्ताव्यक्तयोरव्यतिरेकेपि व्यक्तमेवानित्यं परिणामत्वान्न पुनरव्यक्त परिणामित्वादित्यभ्युपगमे, अत एव ज्ञानात्मनोरव्यतिरेकेपि ज्ञानमेवानित्यमस्तु विशेषाभावात् । प्रात्मनोऽपरिणामित्वे तु प्रधानेपि तदस्तु । व्यक्तापेक्षया परिणामि प्रधानं न शक्त्यपेक्षया सर्वदा स्थास्तुत्वादित्यभिधाने तु प्रात्मापि तथास्तु सर्वथा विशेषाभावात्, अपरिणामिनोऽर्थ क्रियाकारित्वासम्भवेनाग्रेऽसत्त्व प्रतिपादनाच्च । स्वसंवेदन प्रत्यक्षाविषयत्वे चास्याः प्रतिनियतार्थव्यवस्थापकत्वं
जैन - तो इसी प्रकार आत्मा के परिणाम ज्ञानविशेष आदि हैं और वे ही अनित्य हैं ऐसा मानने में भी कोई दोष नहीं आता है।
मांख्य-पाप जैन कथंचित् वादी हो, अतः आप प्रात्मा से ज्ञान का कथंचित् अभेद स्वीकार करते हो, इसलिये ज्ञान के निमित्त से प्रात्मा में अनित्यपने का प्रसंग आता है।
जैन-यही दोष प्रधान पर भी लागू होगा, अर्थात् प्रधान का परिणाम प्रधान से अभिन्न होने के कारण प्रधान में भी परिणाम के समान अनित्यता प्रा जावेगी।
सांख्य–व्यक्त प्रधान और अव्यक्त प्रधान दोनों अभिन्न हैं तो भी परिणाम रूप होने से महदादि व्यक्त ही अनित्य हैं और अव्यक्त प्रधान परिणामवाला होने से अनित्य नहीं है।
जैन- इसी प्रकार प्रात्मा और ज्ञान अभिन्न तो हैं परन्तु ज्ञान प्रनित्य है और आत्मा नित्य है । ऐसा सत्य स्वीकार करना चाहिये, दोनों मन्तव्यों में कोई विशेषता नहीं है । यदि आप आत्मा को सर्वथा कूटस्थ-अपरिणामी मानते हो तो प्रधान को भी सर्वथा अपरिणामी मानना होगा।
सांख्य - व्यक्त की अपेक्षा से तो प्रधान परिणामी है, किन्तु शक्ति की अपेक्षा से तो प्रधान अपरिणामी ही है । क्योंकि शक्ति की अपेक्षा तो वह कूटस्थ नित्य है।
जैन-इसी तरह आत्मा में भी स्वीकार करना चाहिये । ज्ञानकी अपेक्षा वह परिणामी है और शक्ति की अपेक्षा वह कूटस्थ है, कोई विशेषता नहीं है । यह बात भी ध्यान में रखिये कि आत्मा हो चाहे प्रधान हो किसी को भी यदि सर्वथा अपरिणामी मानते हैं तो उसमें अर्थ क्रिया नहीं हो सकती है। जिसमें अर्थ क्रिया ( उपयोगिता ) नहीं है वह पदार्थ ही नहीं है। ऐसा हम जैन आगे प्रतिपादन ही करने वाले हैं । बुद्धि या ज्ञान को यदि स्वसंवेदन का विषय नहीं माना जाय तो वह ज्ञान प्रतिनियत वस्तुओं
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