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प्रमेयकमलमार्तण्डे
'चेतनोऽहम्' इत्यनुभवाच्चैतन्यस्वभावतावच्चात्मनो 'ज्ञाताऽहम्' इत्यनुभवाद् ज्ञानस्वभावताप्यस्तु विशेषाभावात् । ज्ञानसंसर्गात् 'ज्ञाताऽहम्' इत्यात्मनि प्रतिभासो न पुननिस्वभावत्वादित्यप्यसमीक्षिताभिधानम् ; चैतन्यादिस्वभावस्याप्यभावप्रसङ्गात् । चैतन्यसंसर्गाद्धि चेतनो भोक्तृत्वसंसर्गाद्भोक्तौ. दासीन्यसंसर्गादुदासीनः शुद्धिसंसर्गाच्छद्धो न तु स्वभावतः । प्रत्यक्षादिप्रमाणबाधोभयत्र । न खलु ज्ञानस्वभावताविकलोऽयं कदाचनाप्यनुभूयते, तद्विकलस्यानुभवविरोधात् ।
आत्मनो ज्ञानस्वभावत्वेऽनित्यत्वापत्तिः प्रधानेपि समाना। तत्परिणामस्य व्यक्तस्यानित्यत्वोपगमात् अदोषे तु, प्रात्मपरिणामस्यापि ज्ञानविशेषादेरनित्यत्वे को दोषः ? तस्यात्मनः कथञ्चिद
जैन-यह बात बिना विचारे कही गई है, क्योंकि इस प्रकार के कथन से तो आत्मा में चैतन्य आदि स्वभावों का भी अभाव हो जावेगा, वहां भी ऐसा ही कहेंगे कि प्रात्मा चैतन्य के संसर्ग से चैतन्य है, भोक्त त्व के संसर्ग से भोक्ता है, औदासीन्य के संसर्ग से उदासीन है और शुद्धि के संसर्ग से शुद्ध है, न कि स्वभाव से वह चेतन आदि रूप है।
सांख्य-चैतन्य आदि के संसर्ग से आत्मा को यदि चेतन माना जायगा तो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधा आवेगी, अर्थात् हम प्रत्येक प्राणी जो ऐसा अनुभव करते हैं कि हम चैतन्य विशिष्ट हैं-हमारी आत्मा चैतन्य स्वभाववाली है इत्यादि सो इस अनुभव में बाधा आवेगी।
जैन-इसी प्रकार से यदि ज्ञानसंसर्ग से प्रात्मा को ज्ञानी मानोगे तो प्रत्यक्ष प्रमाण से वहां पर भी बाधा आती है, क्योंकि यह आत्मा किसी भी काल में ज्ञान स्वभाव से रहित अनुभव में नहीं आती है, कारण कि ज्ञान के विना अनुभव होना ही शक्य नहीं है।
सांख्य-आत्माको ज्ञानस्वभाव वाला मानोगे तो उसे अनित्य होने की आपत्ति प्रावेगी।
जैन-तो फिर प्रधान के ऊपर भी यही दोष आवेगा, क्योंकि प्रधान को ज्ञान स्वभाव वाला मानते हो, तो वह भी अनित्य हो जावेगा।
सांख्य-प्रधान का एक परिणाम व्यक्त नामका है वह अनित्य है, अत: उसमें ज्ञानस्वभावता मानने में कोई आपत्ति नहीं आती है ।
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