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प्रमेयकमलमार्तण्डे
न्यैरनुभूयमानसंवेदनस्य सद्भावासिद्ध स्तेषामभावः, तर्हि तनिषेधासिद्ध स्तेषां सद्भावः किन्न स्यात् ? अथ तत्संवेदनस्य सद्भावासिद्धिरेवाभावसिद्धिः; नन्वेवं तन्निषेधासिद्धिरेव तत्सद्भावसिद्धिरस्तु । भावाभावाभ्यां परसंवेदनसन्देहे चैकान्तत: सन्तानान्तरप्रतिषेधासिद्ध: । कथं च ग्रामारामादिप्रतिभासे प्रतीतिभूधरशिखरारूढे सकलशून्यताभ्युपगमः प्रेक्षावतां युक्तः प्रतीतिबाधनात् ? दृष्टहानेरदृष्ट कल्पनायाश्चानुषङ्गात् ।
किञ्च, अखिलशून्यतायाः प्रमाणतः प्रसिद्धिः, प्रमाणमन्तरेण वा ? प्रथमपक्षे कथं सकल
जैन-बिलकूल इसी प्रकार से अन्य संवेदन की सिद्धि होगी, देखोसंतानान्तर के संवेदन का निषेध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है, अत: उसका अस्तित्व है ऐसा मानने में क्या बाधा है । अर्थात् कुछ भी नहीं है।
__माध्यमिक- जैन हमारी बात को नहीं समझे, परके संवेदन का अस्तित्व कैसे स्वीकार करें ? क्योंकि उसको सिद्ध करने वाला प्रमाण आपने नहीं दिया है, और अभी हमने भी उसको बाधा देने वाला प्रमाण उपस्थित नहीं किया है, अत: इस विषय में संदेह ही रह जाता है।
जैन-ठीक है, किन्तु इससे सर्वथा संतानान्तर का निषेध तो सिद्ध नहीं हो सकता है, तथा-ग्राम, नगर, उद्यान आदि अनेक पदार्थ प्रत्यक्ष से ही प्रतीतिरूप पर्वत शिखर पर आरूढ हो रहे हैं, अनुभव में आ रहे हैं, तब किस प्रकार सकल शून्यता को माना जाय ? प्रेक्षावान् पुरुष शून्यवाद को कैसे स्वीकार करेंगे । अर्थात नहीं करेंगे । क्योंकि इस मान्यता में बाधा आती है। प्रत्यक्ष सिद्ध बात को नहीं मानना और जो है नहीं उसकी कल्पना करने का प्रसंग आता है। हम आपसे पूछते हैं कि शून्यता को प्रमाण से सिद्ध करते हो कि बिना प्रमाण के ? प्रमाण से सिद्ध करते हो तो शून्यता कहां रही, शून्यता को सिद्ध करने वाला एक प्रमाण तो मौजूद ही है, विना प्रमाण के शून्यता को सिद्ध करना शक्य नहीं है, क्योंकि प्रमेय की सिद्धि प्रमाणसिद्धि के निमित्त से होती है। इस प्रकार शून्यवाद का निरसन हो जाता है ।
* शून्याव तवाद समाप्त * इस प्रकार से प्रभाचन्द्र आचार्य ने ज्ञान के अर्थ "व्यवसायात्मक' इस विशेषण का समर्थन किया, क्योंकि वह प्रतीतिसिद्ध पदार्थों को जानता है । इस संबंध में उसमें सुनिश्चित असंभवबाधकप्रमाणता है-अर्थात् ज्ञानमें प्रतीतिसिद्ध अर्थ की व्यवसायात्मकता है इस बात में बाधक प्रमाण की असंभवता सुनिश्चित है, इतने पर
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