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________________ २५७ शून्याद्वैतवादः इत्यभिधानात् । तत्कथं तददृष्टान्तावष्टम्भेन क्रमेणाप्येकस्यानेकाकारव्यापित्वं साध्येत ? तदप्यसमीचीनम् ; एवमतिसूक्ष्मक्षिकया विचारयतो माध्यमिकस्य सकलशून्यतानुषङ्गात् । तथा हि-नीले प्रवृत्त ज्ञानं पीतादौ न प्रवर्तते इति पीतादेः सन्तानान्तरवदभावः । पीतादौ च प्रवृत्त तन्नीले न प्रवर्तते इत्यस्याप्यभावस्तद्वत् । नीलकुवलयसूक्ष्मांशे च प्रवृत्तिमज् ज्ञानं नेतरांशनिरीक्षणे क्षममिति तदंशानामप्यभावः । संविदितांशस्य चावशिष्टस्य स्वयमनंशस्याप्रतिभासनात्सर्वाभावः । नीलकुवलयादिसंवेदनस्य स्वयमनुभवात्सत्त्वे च अन्यैरनुभवात्सन्तानान्तराणामपि तदस्तु । अथा जेन- शून्यवादी का यह सब कथन-पूर्वोक्त कथन असमीचीन है। क्योंकि इस प्रकार की सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने वाले आप माध्यमिक के यहां सारे विश्व को शून्य रूप होने का प्रसंग आता है, वह इस प्रकार से-बुद्धि में अनेक आकार नहीं हैं तो जो ज्ञान नील को ग्रहण करता है वह पीत को तो ग्रहण करेगा नहीं, इसलिये पीत आदि का अन्य संतान की तरह प्रभाव हो जायगा, इसी प्रकार पीत के ग्रहण में प्रवृत्त हुआ ज्ञान नील को ग्रहण नहीं करता है इसलिये नील का भी पीत के समान अभाव होगा, नीलकमल के सूक्ष्म अंशको जानने में प्रवृत्त हुआ ज्ञान उस कमल के अन्य अन्य अंशोंको ग्रहण करने में समर्थ नहीं होने से उन अंशों का भी अभाव होगा, तथा संविदित अंश वाले उस कमल के अवशिष्ट जो और अंश हैं कि जो अनंशरूप-है अन्य अंश जिन्हों में नहीं हैं-उनका प्रतिभास नहीं होने से उनका अभाव होगा, इस तरह सर्व का प्रभाव हो जायगा । शंका -- नील कमल आदिका संवेदन तो स्वयं अनुभव में आता है अतः उसका अस्तित्व माना जायगा। समाधान-तो इसी तरह अन्य संतानों का संवेदन भी स्वयं अनुभव में आता ही है अत: उनका अस्तित्व भी स्वीकार करना चाहिये । शंका- अन्य संतानों के द्वारा अनुभूयमान जो संवेदन है उसका सद्भाव असिद्ध है, अतः उसका सत्त्व नहीं माना जाता है ? समाधान- तो फिर उन सन्तानान्तरों के संवेदन का निषेध करने वाला कोई प्रमाण नहीं होने से उनका अस्तित्व माना जायगा । ___ माध्यमिक-संतानान्तर के संवेदन की अर्थात् अन्य व्यक्तिके ज्ञानकी सत्ता प्रसिद्ध होने से ही उसका अभाव स्वीकार किया जाता है ? ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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