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________________ २४६ प्रमेयकमलमार्तण्डे यदप्युक्तम्-तैमिरिकस्य द्विचन्द्रादिवत्कादिकमविद्यमानमपि प्रतिभातीति, तदपि स्वमनोरथमात्रम् ; अत्र बाधकप्रमाणाभावात् । द्विचन्द्रादौ हि विपरीतार्थख्यापकस्य बाधकप्रमाणस्य सद्भावाद्य क्तमसत्प्रतिभासनम्, न पुनः कदिौ; तत्र तद्विपरीताद्वैतप्रसाधकप्रमाणस्य कस्यचिदसम्भवेनाऽबाधकत्वात् । प्रतिपादितश्च बाध्यबाधकभावो ब्रह्माद्व तविचारे तदलमतिप्रसङ्गन । अद्वैतप्रसाधकप्रमाण शंका-जैनों के यहां तो सुख दु:ख आदि में प्रकाशमानत्व की ज्ञानत्व के साथ व्याप्ति रहती ही है, उसीसे हम भी मानेंगे । समाधान- यह प्रसिद्ध बात कहते हो, क्योंकि हम जैन तो जो स्वतः प्रकाशमानत्व की ज्ञानत्व के साथ व्याप्ति करते हैं वैसी व्याप्ति अापके दृष्टान्तरूप सुखादिकों में तो है किन्तु नील आदि दान्ति में तो ज्ञानत्व नहीं मानते हैं, अतः प्रतिभासमानत्व हेतु नीलादिक में प्रसिद्ध ही रहता है, और नील आदि पदार्थों में जो परतः प्रकाशमानत्व माना हुआ है उसकी ज्ञानत्व के साथ व्याप्ति है नहीं, इसलिये जैन के समान आप बौद्ध सुखादि में ज्ञानत्व की व्याप्ति सिद्ध नहीं कर सकते । अद्वैत को सिद्ध करने में दिया गया प्रतिभासमानत्व हेतु में इस प्रकार से स्वत: और परतः दोनों ही तरह से प्रकाशमानत्व सिद्ध नहीं हुआ, तीसरा पक्ष जो प्रतिभासमानमात्र है उसे यदि हेतु माना जाता है तो इससे आपका मतलब सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि प्रतिभासमान सामान्य तो नीलादि पदार्थों में उपलभ्यमान है ही, उसका जड़पने के साथ कोई विरोध नहीं आता है, इससे तो यही सिद्ध होता है कि नीलादि पदार्थ प्रतिभासित होते हैं मात्र इतना ही उस प्रतिभाससामान्यरूप हेतु से सिद्ध होता है, यह सिद्ध नहीं होता कि वे नीलादिक ज्ञानरूप हैं। अर्थात् सर्वथा सभी पदार्थ ज्ञानरूप ही हैं ऐसी व्याप्ति प्रतिभाससामान्य हेतु सिद्ध नहीं कर सकता है। आप विज्ञानाद्वैतवादी ने कहा था कि नेत्र रोगी को द्विचन्द्र के ज्ञान की तरह अविद्यमान भी कर्ता कर्म आदि प्रतीति में आते हैं अतः वे झूठे हैं-मिथ्या हैं । सो ऐसा कहना भी गलत है क्योंकि घट आदि पदार्थों में जो कर्ता कर्म आदि का भेद दिखता है उसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं आती है, द्विचन्द्र प्रतिभास में तो ज्ञान के विषय को विपरीत बतलाने वाला बाधक प्रमाण आता है, अतः उस प्रतिभास को असत्य मानना ठीक है, किन्तु उससे अन्य कर्ता आदि में असत्यपना कहना ठोक नहीं है, क्योंकि इस प्रसिद्ध कर्ता आदि के विपरीतपने को कहनेवाला आपका अद्वैत किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं होता है । अत: उस अद्वैत से भेदस्वरूप कादिक में बाधा आ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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