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________________ २४४ प्रमेयकमलमार्तण्डे तथैव तदापत्तेस्तत्र दृष्टान्तवचनमनर्थकमिति निग्रहाय जायेत । अथ सुखादेरज्ञानत्वे ततः पीडानुग्रहाभावो भवेत् । ननु सुखाद्य व पीडानुग्रहौ, ततो भिन्नो वा? प्रथमपक्ष-क्व ज्ञानत्वेन व्याप्तौ तौ प्रतिपन्नौ; यतस्तदभावे न स्याताम् । व्यापकाभावे हि नियमेन व्याप्याभावो भवति । अन्यथा प्राणादेः सात्मकत्वेन क्वचिद्व्याप्त्यसिद्धावप्यात्माऽभावे स न भवेत् ततः केवलव्यतिरेकिहेत्वगमकत्वप्रदर्शनमयुक्तम् । तन्नाद्यपक्षः। नापि द्वितीयो यतो यदि नाम कि वैसे ही अर्थात् विना दृष्टान्त के हो नील आदि पदार्थ भी ज्ञान स्वरूप सिद्ध मानो फिर आपके द्वारा प्रयुक्त अनुमान में दिया गया दृष्टान्त व्यर्थ हो जाता है और विना जरूरत के दृष्टान्त देने से प्राप निग्रह स्थान के पात्र बन जावेंगे। भावार्थ-नैयायिकके यहां वस्तुतत्त्व की सिद्धि करने के लिए जो वादी और प्रतिवादी के परस्पर वाद हुआ करते हैं उसमें बाद के २४ निग्रहस्थान-दोष माने गये हैं। उन निग्रहस्थानों का उनके मतमें विस्तार से वर्णन किया गया है । वादी जब अपने मत की सिद्धि के लिये अनुमान का प्रयोग करता है तब उसमें उपयोग से अधिक वचन बोलने से निग्रह स्थान उसकी पराजयका कारण बन जाता है इत्यादि । जैनाचार्य ने इस विषय पर आगे जय पराजय व्यवस्था प्रकरण में खूब विवेचन किया है। शंका-सुख दुःख आदि में इस तरह से ज्ञानपने' का खण्डन करोगे तो उनसे पीडा और अनुग्रह रूप उपकार नहीं हो सकेगा ? समाधान-बिलकुल ठीक बात है-किन्तु यह बतानो कि सुख आदि से होने वाले पोड़ा आदि स्वरूप उपकार सुख आदि स्वरूप ही हैं ? अथवा उनसे भिन्न हैं ? यदि अनुग्रह पीड़ा आदिक सुखादिरूप ही हैं ऐसा मानो तो उन पीड़ादिस्वरूप दुःख सुख की ज्ञानपने के साथ व्याप्ति कहां पर जानी है, जिससे कि ज्ञानत्व के अभाव में पीड़ा आदि का अभाव होनेको कहते हो, क्योंकि व्यापक का जहां अभाव होता है वहां पर व्याप्य का भी अभाव माना जाता है, ऐसा नियम है, अतः यहां भी ज्ञानपने के साथ पीड़ा अनुग्रह की व्याप्ति सिद्ध होवे तब तो कह सकते हैं कि ज्ञानपना नहीं है अत: पीड़ा आदि भी नहीं हैं, व्याप्य व्यापक का इस प्रकार नियम नहीं मानोगे तो प्राण आदि अर्थात् श्वासोच्छ्वास लेना आदि हेतु के द्वारा शरीर में आत्मा का सद्भाव किया जाता है, उस अनुमान में प्राणादिमत्त्व हेतु की कहीं कहीं दृष्टान्त में व्याप्ति नहीं देखी जाती है तो भी उस प्राणादिमत्त्व हेतु से यह सिद्ध होता है कि इस हेतु के न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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