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प्रमेयकमलमार्तण्डे
ज्ञानवत्' इत्ययुक्तम् । न च गृहीतिविधानादर्थस्य ग्राह्यतेष्यते; स्वरूपप्रतिनियमात्तदभ्युपगमात् । यथैव ह्य कसामग्र यधीनानां रूपादीनां चक्षुरादीनां समसमयेऽपि स्वरूपप्रतिनियमादुपादानेतरत्वव्यवस्था, तथार्थज्ञानयो ह्यतरत्वव्यवस्था च भविष्यति ।
ननु यया प्रत्यासत्या ज्ञानमात्मानं विषयीकरोति तयैव चेदर्थं तयोरक्यम् । न ह्य कस्वभाववेद्यमनेक युक्तमन्यथैकमेव न किञ्चित्स्यात् । अथान्यया; स्वभावद्वयापत्तिर्ज्ञानस्य भवेत् । तदपि स्वभावद्वयं यद्यपरेण स्वभावद्वयेनाधिगच्छति तदाऽनवस्था तद्वदनेप्यपरस्वभावद्वयापेक्षणात । ततः
का उत्तरक्षणवर्ती ज्ञानरूप कार्य है । तथा गृहीति-जाननेका कारण होने से पदार्थ को ग्राह्य मानते हैं सो भी बात नहीं है, ग्राह्य और ग्राहकता तो स्वरूप के प्रतिनियम से हुआ करती है ऐसा ही हमने स्वीकार किया है, देखिये पाप बौद्ध के यहां पर क्षणिकवाद है, अत: पूर्व क्षणवर्ती वस्तु उत्तर क्षणवर्ती वस्तु को पैदा करती है ऐसा माना है, तथा पूर्वक्षण का रूप उत्तरक्षण के रूप को और चक्षुज्ञान को भी उत्पन्न करता है तो भी उस पूर्ववर्ती रूप को आगे के रूप के लिये तो उपादान माना है और चक्षुज्ञान के लिये सहकारी माना है, जैसे यहां पर एक सामग्री से पैदा होते हुए भी किसी के प्रति उपादान और किसी के प्रति सहकारीपना रहता है, तथा वे रूप और चक्षुज्ञान समान काल में उत्पन्न होते हैं तो भी उनमें स्वरूप के नियम से ही ग्राह्य ग्राहक भाव बनता है, यही बात ज्ञान और पदार्थ में है अर्थात् ज्ञान और पदार्थ समकालीन होते हैं तो भी पदार्थ ही ग्राह्य है और ज्ञान ग्राहक है ऐसा निर्बाध सिद्ध होता है।
बौद्ध-ज्ञान जिस शक्ति से अपने आपको जानता है उसी शक्ति से पदार्थ को जानेगा तो दोनों में एकपना हो जायेगा, क्योंकि एक ही स्वभाव से जो जाना जाता है वह अनेक नहीं हो सकता, अन्यथा किसी में भी एकपना नहीं रहेगा, तथा ज्ञान अपने को किसी अन्य शक्ति से जानेगा तो उसमें दो स्वभाव मानने होंगे, वे दो स्वभाव भी किन्हीं अन्य दो स्वभावों से ग्रहण हो सकेंगे, इस तरह अनवस्था आती है, क्योंकि स्वभावों को जानने के लिये अन्य स्वभावों की जरूरत होती है, इसलिये ज्ञान तो अपने स्वरूप को जानता है, पदार्थों को नहीं ऐसा मानना चाहिये ।
जैन-यह कथन असत् है, क्योंकि ज्ञान तो अपने और पर को जानने रूप एक स्वभाव वाला होता है, ज्ञान का यह स्वभाव किस प्रकार सत्य है, उसमें किसी प्रकारके दोष नहीं आते हैं इन सब बातों को हम स्व संवेदन ज्ञान की सिद्धि करते
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