SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३. प्रमेयकमलमार्तण्डे __ननु च 'अर्थमहं वेद्मि चक्षुषा' इति कर्मकर्तृ क्रियाकरणप्रतीतिर्ज्ञानमात्राभ्युपगमे कथम् ? इत्यप्यपेशलम् ; तैमिरिकस्य द्विचन्द्रदर्शनवदस्या अप्युपपत्तः । यथा हि तस्यार्थाभावेपि तदाकारं ज्ञानमुदेत्येवं कर्मादिष्वविद्यमानेष्वपि अनाद्यविद्यावासनावशात्तदाकारं ज्ञानमिति । अत्र प्रतिविधीयते । यत्तावदुक्तम्-'अहंप्रत्ययो गृहीतोऽगृहीतो वा' इत्यादि; तत्र गृहीत एवार्थ ग्राहकोऽसौ, तद्ग्रहश्च स्वत एव । न च स्वतोऽस्य ग्रहणे स्वरूपमात्रप्रकाशनिमग्नत्वाद् बहिरर्थप्रकाशकत्वाभावः; विज्ञानस्य प्रदीपवस्वपरप्रकाशस्वभावत्वात् । यच्चोक्तम्-' निर्व्यापारी सव्यापारो वेत्यादि; तदप्युक्तिमात्रम् ; स्वपरप्रकाशस्वभावताव्यतिरेकेण ज्ञानस्य स्वपरप्रकाशनेऽपरव्यापाराभावात्प्रदोपवत् । न खलु प्रदीपस्य स्वपरप्रकाश कोई भी पर से प्रतीत नहीं होता है, इस प्रकार प्रारम्भ अद्व तसिद्धि में जो अवभासमानत्व हेतु दिया है वह सिद्ध हो जाता है प्रसिद्ध नहीं रहता। शंका-"मैं अांख के द्वारा पदार्थ को जानता हूं" इस प्रकार से कर्ता करण कर्म और क्रिया ये संब भेद ज्ञान मात्र तत्त्व को मानने पर कैसे सिद्ध होंगे ? समाधान—यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार नेत्र रोगी को द्विचन्द्र का ज्ञान होता है वैसे ही कर्ता करण आदि की भी प्रतीति होती है, अर्थात् कर्ता प्रादि सभी भेद काल्पनिक होते हैं, द्विचन्द्र का ज्ञान दो चन्द्र नहीं होते हुए भी पैदा होता है, उसी प्रकार कर्म आदिरूप पदार्थ अविद्यमान होने पर भी अनादिकालीन अविद्यावासना के वश उस उस प्राकार से ज्ञान पैदा होता है, इस प्रकार यहां तक विज्ञानवादी ने अपना लबा चौड़ा यह पूर्व पक्ष स्थापित किया। ___ अब आचार्य इस पूर्वपक्ष का निरसन करते हैं- सबसे पहिले बौद्ध ने पूछा था कि अहं प्रत्यय गृहीत होकर पदार्थ को जानता है कि अगृहीत होकर पदार्थ को जानता है, सो उस विषय में यह जवाब है कि वह प्रत्यय गृहीत होकर ही पदार्थ को ग्रहण करता है और उसका ग्रहण तो स्वत:, ही होता है। स्वत: ग्रहण होना मानने में जो दोष दिया था कि "अहं प्रत्यय अपने को जानता है तो फिर वह अपनेमें ही मग्न हो जायगा फिर इसके द्वारा बहिरर्थ का प्रकाशन कैसे हो सकेगा?" सो ऐसी बात नहीं है, क्योंकि विज्ञान दीपक की भांति स्व और पर का प्रकाशकजाननेवाला-माना गया है । तथा-हमसे जो आपने ऐसा पूछा है कि अहं प्रत्यय व्यापार (क्रिया ) सहित है कि व्यापार रहित है-सो यह आपका बकवास मात्र है, क्योंकि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy