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प्रमेयकमलमार्तण्डे ननु नार्थाभावद्वारेण विज्ञप्तिमात्रं साध्यते, अपितु अर्थसंविदोः सहोपलम्भनियमादभेदो द्विचन्द्रदर्शनवदिति विधिद्वारेणैव साध्यते; तदप्यसारम् ; अभेदपक्षस्य प्रत्यक्षेण बाधनाच्छब्दे श्राव(ब्देऽश्राव) णत्ववत् । दृष्टान्तोपि साध्यविकलः; विज्ञानव्यतिरिक्तबाह्यार्थमन्तरेण द्विचन्द्रदर्शनस्याप्यसम्भवात् । कारणदोषवशात् खलु बहिःस्थितमेकमपीन्दु द्विरूपतया प्रतिपद्यमानं ज्ञानमुत्पद्यते,
किया गया है सो ऐसा यह उसका कथन उपर्युक्त प्रकार से निरस्त हो जाता है, क्योंकि बाह्यपदार्थों के सद्भाव में बाधा देने वाले कोई भी प्रत्यक्षादिक प्रमाण अभी तक सिद्ध नहीं हुए हैं-अर्थात् बाह्यपदार्थ ज्ञानरूप हैं इस बात की सिद्धि प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाण से नहीं होती है ।
विज्ञानाद्वैत०-हम बाह्य अर्थों का अभाव होने से विज्ञानमात्र तत्त्व को सिद्ध नहीं करते हैं; किन्तु पदार्थ और ज्ञान एक साथ उपलब्ध होते हुए दिखाई देते हैं, अतः उन दोनों में अभेद सिद्ध करते हैं, जैसे-दो चन्द्रों की प्रतीति करने वाले दर्शन में दो चन्द्रों में अभेद रहता है।
भावार्थ-संवेदन जिससे अभिन्न रहता है वह संवेदन रूप ही होता है, जैसे नील का प्रतिभास नील से अभिन्न रहता है, अथवा नेत्ररोगी के ज्ञान में दूसरा चन्द्रमा अभिन्न रहता है, ज्ञान और पदार्थों में अभेदपना सिद्ध करनेवाला-अभिन्नता का साधनेवाला-विधिसाधक अनुमान इस प्रकार है-कि नीलग्राकार और उसे जाननेवाला ज्ञान इन दोनों में अभिन्नता है, क्योंकि ये एक साथ उपलब्ध होते हैं, इस प्रकार के अनुमान से विज्ञानतत्त्व की सिद्धि हम करते हैं।
जैन- यह अद्वैतवादी का कथन असार है, क्योंकि अभेदपक्ष में प्रत्यक्ष बाधा आती है, जैसे कि शब्दपक्ष में अश्रावणत्व हेतु बाधित है-प्रर्थात् "शब्द अनित्य है क्योंकि वह कर्णेन्द्रिय ग्राह्य नहीं है" इस अनुमान में शब्दरूप पक्ष में दिया गया अश्रावणत्व हेतु कर्णेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होने से प्रत्यक्ष बाधित होता है । तथा अद्वत साधक अनुमान में आपने जो दो चन्द्रदर्शन का दृष्टान्त दिया है वह भी साध्यविकल है-साध्यधर्म-जो विज्ञानमात्रतत्त्व है उससे रहित है, क्योंकि बाह्यपदार्थों के बिना दो चन्द्र का दर्शन भी नहीं हो सकता है, दो चन्द्र का देखना सदोष नेत्र के होने से होता है, जिससे कि बाह्य में ( आकाश में ) एक ही चन्द्रमा के होते हुए भो दो रूप से उसे जानने वाला-देखने वाला ज्ञान पैदा होता है, आगे जब बाधा देने वाला ज्ञान उपस्थित होता है तब उस ज्ञान की भ्रान्तता निश्चित हो जाती है, ऐसी बात
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