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________________ [१८] सहित खण्डन पाया जाता है । इस प्रकार प्रथम अध्याय में कारक साकल्यवाद, सन्निकर्षवाद, इन्द्रियवृत्ति, ज्ञातृव्यापार, निर्विकल्पप्रत्यक्षवाद, शब्दाद्वैतवाद, विपर्ययविवाद, स्मृति प्रमोष अपूर्वार्थवाद, ब्रह्माद्वैतवाद, विज्ञानाद्वैतवाद, चित्राद्वैत, शून्याद्वैत, अचेतनज्ञानवाद, साकारज्ञानवाद, भूतचैतन्यवाद, ज्ञानपरोक्षवाद, आत्मपरोक्षवाद, ज्ञानांतरवेद्यज्ञानवाद, प्रमाण्यवाद इतने प्रकरणों का समावेश है। दूसरे अध्याय में प्रत्यक्षक प्रमाणवाद, प्रमेय विध्यवाद, नैयायिक, मीमांसक के द्वारा बौद्ध के प्रमाणसंख्या का निरसन, मीमांसक के द्वारा उपमा, अर्थापत्ति और प्रभाव प्रमाण का समर्थन, शक्ति स्वरूप विचार, प्रभाव प्रमाणका प्रत्यक्षादि प्रमाणों में अंतर्भाव, मीमांसक के प्रागभाव आदि अभावोंका विस्तृत निरसन, विशद ज्ञानका स्वरूप, चक्षु सन्निकर्षवाद, सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष इन प्रकरणों का समावेश है । अब यहाँ पर इन ३० प्रकरणों का शब्दार्थ और संक्षिप्त भावार्थ बताया जाता है कारक साकल्यवाद-कारक-ज्ञानों को करने वाले अर्थात् ज्ञान जिन कारणों से उत्पन्न होता है वे कारक कहलाते हैं । उनका साकल्य अर्थात पूर्णता होना कारक साकल्य है उसको मानना कारकसाकल्यवाद है । इसका प्रतिपादन करने वाले नैयायिक हैं । इनका कहना है कि पदार्थोंको जानने के लिये ज्ञान और अज्ञानरूप दोनों ही सामग्री चाहिये, कर्त्ता आत्मा तथा ज्ञान बोधरूप सामग्री और प्रकाश आदि अज्ञान-प्रबोधरूप सामग्री है यही प्रमाण है भावाथ यह हुआ कि वस्तु का ज्ञान जिन चेतन अचेतन की सहायता से होता है वह सब प्रमाण है । सन्निकर्षवाद - स्पर्शनादि इन्द्रियां तथा मन इन छहों द्वारा छूकर ही ज्ञान होता है, सन्निकर्ष अर्थात स्पर्शन आदि पांचों इन्द्रियां तथा मन भी पदार्थों का स्पर्श करते हैं । तभी उनका ज्ञान होता है। जो छना है वह तो प्रमाण है । और पदार्थ का जो ज्ञान हुअा वह उस प्रमाण का फल है ऐसा वैशेषिक का कहना है। ___ इन्द्रियवृत्ति-- "इन्द्रियाणां वृत्तिः, इन्द्रिय वृत्तिः" अर्थात् स्पर्शन आदि इन्द्रियों का पदार्थों को जानने के लिये जो प्रयत्न होता है, वही प्रमाण है जैसे नेत्र खोलना आदि क्रिया है वह प्रमाण है । ज्ञातृ व्यापार-ज्ञाताका पदार्थ को जानने में जो व्यापार [ प्रवृति ] होता है । वह प्रमाण है। मतलब पदार्थ को जानने के लिये जो हमारी आत्मा में क्रिया होती है उसे प्रमाण कहना चाहिये इस प्रकार मीमांसक ( प्रभाकर ) कहते हैं। निर्विकल्प प्रत्यक्षवाद-प्रत्यक्ष प्रमाण सर्वथा कल्पना से रहित निर्विकल्प रहता है अर्थात् यह घट है इत्यादि वस्तु विवेचनसे रहित जो कुछ ज्ञान है जिसमें शब्द योजना नहीं है वह प्रत्यक्ष प्रमाण है। ऐसी बौद्धों की धारणा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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