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विषय परिचय प्रथम ही संबंधायियेम 'इष्टप्रयोजन, शक्यानुष्ठानादि की तथा मंगलाचरण की चर्चा है अनंतर जरन्नैयायिक प्रमाण के विषय में अपना पक्ष स्थापित करता है। इस ग्रन्थ में प्रमाण तत्वका मुख्यतया विवेचन है । प्रमाण अर्थात् पदार्थों को जानने वाली चीज, इस प्रमाण के विषयमें विभिन्न मतों में विभिन्न ही लक्षण पाया जाता है। नैयायिक कारक साकल्यको प्रमाण मानता है । वैशेषिक सन्निकर्ष को, सांख्य इन्द्रिय वृत्ति को, प्रभाकर ( मीमांसक ) ज्ञातृ व्यापार को प्रमाण मानते हैं। अत: इन कारक साकल्यादि का प्राचार्य ने क्रमशः पूर्व पक्ष सहित कथन करके खण्डन किया है । और ज्ञान ही प्रमाण है यह सिद्ध किया है। बौद्ध प्रत्यक्ष प्रमाण को निर्विकल्प रूप स्वीकार करता है इसका भी निरसन किया है । शब्दाद्वैतवादी भर्तृहरि आदि प्रमाण को ही नहीं अपितु सारे विश्व को ही शब्दमय मानते हैं इस मत का निरसन करते ही प्रमाण के स्वरूप के समान उसके द्वारा ग्राह्य विषय में विवाद खड़ा होता है । जैन प्रमाण का विषय कथंचित अपूर्व तथा सामान्य विशेषात्मक मानते हैं जो सर्वथा निर्बाध सत्य है। किन्तु एकान्त पक्ष से दूषित बुद्धि वाले मीमांसकादि प्रमाण को सर्वथा अपूर्वार्थका ग्राहक मानते हैं उनको समझाया गया है कि प्रमाण को सर्वथा अपूर्व ग्राहक मानने में क्या २ बाधायें आती हैं । प्रमाण संशय, विपर्यय अनध्यवसाय रहित होता है । विपर्यय ज्ञान के विषय में भी विविध मान्यता है । चार्वाक विपर्यय का अख्याति रूप ( अभाव रूप ) मानता है। बौद्ध असत् ख्याति रूप, सांख्य प्रसिद्धार्थ ख्याति को, शून्यवादी प्रात्म ख्याति को तथा ब्रह्मवादी अनिर्वचनीयार्थ ख्याति को विपर्यय ज्ञान कहते हैं । प्रभाकर स्मृति प्रपोष को ( याद नहीं रहना ) विपर्यय बतलाते हैं । इन सबका निराकरण करके प्राचार्य ने विपर्यय का विषय विपरीत पदार्थ सिद्ध किया है । जब प्रमाण का विषय कथंचित अपूर्व ऐसा बहिरंग अन्तरंग पदार्थ रूप सिद्ध हुआ तब अद्वैतवादी उसमें सहमत नहीं हुए. ब्रह्मवादी संपूर्ण विश्वको ब्रह्ममय, बौद्ध के चार भेदों में से योगाचार, विज्ञानमय, चित्ररूप और माध्यमिक सर्वथा शून्य रूप मानता है । इनका क्रमश: खण्डन किया है । पुनः ज्ञानको जड़ का धर्म मानने वाले सांख्य और चार्वाक अपना पक्ष रखते हैं । अर्थात् सांख्य ज्ञान को जड़ प्रकृति का गुण मानता है । और चार्वाक पृथिवी प्रादि भूतों का, अतः इनका खण्डन किया है, तथा ज्ञान को साकार मानने वाले बौद्ध का खण्डन किया है । मीमांसक ( भाट्ट ) ज्ञान को सर्वथा परोक्ष मानता है। प्रभाकर ज्ञान और आत्मा दोनों को परोक्ष मानता है । नैयायिक ज्ञान को जानने वाला दूसरा ज्ञान होता है । ऐसा मानता है। इस प्रकार ये क्रमशः परोक्ष ज्ञानवादी, आत्म परोक्ष वादी ज्ञानान्तर वेद्य ज्ञानवादी कहलाते हैं। इनका निराकरण करके इस अध्याय के अन्त में मीमांसक के स्वतः प्रमाणवाद का सुविस्तृत विवेचन
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