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________________ ब्रह्माद्वैतवाद पूर्वपक्ष। १८१ जैसे - मकड़ी धागे का, चन्द्र कान्तमणि जल का, वट वृक्ष जटाओं का कारण है, वैसे ही वह परमब्रह्म सब जीवों का कारण है, अर्थात् मकड़ी से स्वभावतः जैसे धागा निकलता है अथवा-रेशम कीड़ा से जैसे रेशम की निष्पत्ति होती है, चन्द्रकान्तमणि से जैसे स्वभावतः जल उत्पन्न होता है वैसे ही ब्रह्म से स्वभाव से जगत्-चेतन अचेतन पदार्थ उत्पन्न होते हैं । तीसरे प्रश्न का उत्तर यह परमब्रह्म स्वभाव से ही जब कभी अज्ञानरूप हो जाता है, तब उसके द्वारा सृष्टि की रचना का क्रम प्रारम्भ होता है, "अज्ञानस्यावरणविक्षेपनामकमस्तिशक्तिद्वयम्" सच्चिदानन्द स्वरूपमावृणोत्यावरणशक्तिः, तथा ब्रह्मादिस्थावरान्तं जगत् जलबुदबुदवत् नामरूपात्मकं विक्षिपति, सृजतीति विक्षेपशक्तिः ।। अज्ञान की दो शक्तियां हैं-आवरणशक्ति और विक्षेपशक्ति, चिदानन्दस्वरूप को ढकनेवाली प्रावरणशक्ति है, और व्यक्तब्रह्म से लेकर-अर्थात् व्यक्तब्रह्म, आकाश, वायु आदि से लेकर स्थावर पर्यन्त सम्पूर्ण सृष्टि की रचना को करनेवाली विक्षेपशक्ति है, "अनयवावरण शक्त्यावच्छिन्नस्यात्मन: कर्तृत्व, भोक्त त्व, सुख-दुःख-मोहात्मकतुच्छ संसार भावनाऽपि संभाव्यते" पूर्वोक्त प्रावरणशक्ति से युक्त प्रात्मा के अन्दर कर्तृत्वबुद्धि, भोक्त त्व, सुख दुःख मोह आदिक विकारभाव या तुच्छ संसारभावना उत्पन्न होती है, "तमः प्रधानविक्षेपशक्तिमदज्ञानोपहतचैतन्यादाकाश आकाशाद्वायुवीयोरग्निरग्ने रापोऽदभ्यः पृथिवी चोत्पद्यते । तस्माद्वा एतस्मादात्मनः आकाशः संभूतः इत्यादि श्रुतेः"-- तमोगुण है प्रधान जिसमें ऐसे विक्षेपशक्तिवाले अज्ञान से जब यह चैतन्य या ब्रह्म उपहत हो जाता है, तब उससे आकाश उत्पन्न होता है, अाकाश से वायु. वायु से अग्नि, अग्नि से जल, और जल से पृथिवी उत्पन्न होती है, श्रुतिग्रन्थ में भी कहा है कि "इस ब्रह्म आत्मा से आकाश हुआ है इत्यादि । "तेषु जाड्याधिक्यदर्शनात्तम: प्राधान्यं तत्कारणस्य । तदानीं सत्त्वरजस्तमांसि कारणगुणप्रक्रमेण तेष्वाकाशादिषूत्पद्यन्ते । एतान्येव सूक्ष्म भूतानि तन्मात्राण्यपञ्चीकृतानि चोच्यते । एतेभ्य: सूक्ष्मशरीराणि स्थूलभूतानि चोत्पद्यन्ते" ॥ उन आकाश आदि पृथिवीपर्यन्त के पदार्थों में जड़ता अधिक रूप से दिखाई देती है, अतः तमोगुण प्रधानविक्षेपशक्तियुक्त चैतन्य उनका कारण है, यह सिद्ध होता है, जब वे आकाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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