________________
प्रमेयकमलमार्तण्डे त्वस्मन्मतप्रवेशः। निश्चिते विषये किनिश्चयान्तरेण अप्रेक्षावत्त्वप्रसङ्गात् ; इत्यप्यवाच्यम् ; भूयो निश्चये सुखादिसायकत्वविशेषप्रतीतेः। प्रथमतो हि वस्तुमात्रं निश्चीयते, पुन! 'सुखसाधनं दुःखसाधनं वा' इति निश्चित्योपादीयते त्यज्यते वा, अन्यथा विपर्ययेणाप्युपादानत्यागप्रसङ्ग स्यात् । केषाञ्चित्सकृद्दर्शनेपि तनिश्चयो भवति अभ्यासादिति एकविषयाणामप्यागमानुमानाध्यक्षाणां प्रामाण्यमुपपन्नम् प्रतिपत्तिविशेषसद्भावात् ; सामान्याकारेण हि वचनात्प्रतीयते वह्निः, अनुमानाद्दे. शादिविशेषविशिष्टः, अध्यक्षात्त्वाकारनियत इति । ततोऽयुक्तमुक्तम्
का ग्रहण हो ही जाता है इस तरह उस वृक्ष की विशेषता को जानने वाले सारे ही ज्ञान अप्रमाणभूत हो जायेंगे। हां; यदि कथंचित् अनधिगतार्थगन्तृत्व में प्रमाणता मानो तो जैन मान्य अनेकान्त मत में आप प्रभाकर का प्रवेश हो जावेगा।
शंका-निश्चित किये हुए विषय में निश्चयान्तर की आवश्यकता क्या है, इस तरह से कहने वाला तो मूर्ख कहलाता है तात्पर्य कहने का यह है कि जो विषय निश्चित हो चुका उसे पुनः निश्चय करने की क्या आवश्यकता है, उससे कोई प्रयोजन तो निकलता नहीं है, पिष्ट को पेषण करना ही तो मूर्खपने की बात है।
समाधान-ऐसा नहीं कहना चाहिये क्योंकि बार बार निश्चय करानेवाले ज्ञानमें सुखादिसाधकता विशेष अच्छी तरह से प्रतीति हो जाती है, देखो पहिले तो ज्ञान से सामान्यवस्तु का निश्चय होता है, फिर यह वस्तु सुखसाधनरूप है या दुःखसाधनरूप है ऐसा जानकर ज्ञाताजन सुख साधन को ग्रहण करता है और दुःख साधन को छोड़ देता है । यदि ऐसा निश्चय न हो तो विपरीतरूप से भी ग्रहण करना और छोड़ना हो सकता है, अर्थात् दुःखसाधन का ग्रहण और सुखसाधन का छोड़ना ऐसा उल्टा भी हो सकता है, हां; कई व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो एकबार के निश्चय से ही वस्तु का निर्णय कर लिया करते हैं क्योंकि उनका ऐसा अभ्यास विशेष होता है, इस तरह विषयवाले भी पागम अनुमानादि अनेक प्रमाणों में प्रमाणता इसीलिये मानी गई है कि वे उसी एक विषय की आगे-मागे विशेष जानकारी कराते रहते हैं । जैसे कि-अग्नि इस वचन के द्वारा सामान्य अग्नि का जानना होता है। फिर वही देशादि विशेष विशिष्टरूप से अनुमान द्वारा जानी जाती है। पुन: उस स्थान पर जाकर प्रत्यक्ष से देखने पर वह और भी विशेषरूप से जान ली जाती है, अतः आपने जो इस श्लोक द्वारा ऐसा कहा है कि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.