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पूर्वार्थत्वविचार:
नच विशिष्टप्रमोत्पादकत्वेप्य धिगत विषयेऽस्याऽकिञ्चित्करत्वम्; प्रतिप्रसङ्गात् । न चैकान्ततोऽनधि गतार्थाधिगन्तृत्वे प्रामाण्यं प्रमाणस्यावसातुं शक्यम् तद्धयर्थतथा भावित्वलक्षरणं संवादादवसीयते, स च तदर्थोत्तरज्ञानवृत्तिः । न चानधिगतार्थाधिगन्तुरेव प्रामाण्ये संवादप्रत्ययस्य तद् घटते । न च तेनाप्रमाणभूतेन प्रथमस्य प्रामाण्यं व्यवस्थापयितु ं शक्यम्; अतिप्रसङ्गात् । न च सामान्यविशेषयो - स्तादात्म्याभ्युपगमे तस्यैकान्ततोऽनधिगतार्थाधिगन्तृत्वं सम्भवति । इदानीं तन्नानास्तित्व ( इदानीन्तनास्तित्व) स्य पूर्वास्तित्वादभेदात् तस्य च पूर्वमप्यधिगतत्वात् । कथञ्चिदनधिगतार्थाधिगन्तृत्व
पदार्थ में विशिष्ट प्रमाजनक होने से ज्ञान में किञ्चित्करता नहीं आती है उसी प्रकार अधिगत अर्थ में विशिष्ट प्रमाजनक होने से ज्ञानमें प्रकिञ्चित्करता नहीं आती है ऐसा स्वीकार करना चाहिये । दूसरी बात यह है कि यदि एकान्ततः अनधिगत अर्थ को ही प्रमाणका विषय माना जावे तो उस प्रमाण में प्रमाणता का निश्चय करना शक्य नहीं हो सकेगा, क्योंकि वह प्रमाणता तो वस्तु को जैसी की तैसी जानने से ज्ञान में आती है, अर्थात् इस ज्ञान का विषयभूत पदार्थ वास्तविकऐसा ही है ऐसा निश्चय होनेरूप ही प्रमाणता है; और वह संवादक प्रमाण से जानी जाती है, संवादक ज्ञान उस प्रथम ज्ञान के अनन्तर प्रवृत्त होता है, अब देखिये - सर्वथा अनधिगत पदार्थ ही प्रमाण का विषय है ऐसा ही एकान्तरूप से माना जावे तो संवादकज्ञान में यह बात घटित नहीं होती क्योंकि वह उस प्रथम प्रमारण की सत्यता को बताने वाला होने से उसी के विषय का ग्राहक होता है । संवादकज्ञान के अप्रमाणभूत होने पर उसके द्वारा प्रथम ज्ञान की प्रमाणता व्यवस्थित नहीं हो सकती । यदि स्वतः अप्रमाणभूत ऐसे संवादक से प्रमाणता आवे तो संशयादि श्रप्रमाण से भी वह आनी चाहिये । तथा - सामान्य और विशेष का जब तादात्म्य सम्बन्ध है - तब किसी वस्तु का सामान्य धर्म जान लेने पर वह वस्तु विशेष धर्म के लिये भी अपूर्व कहां रही । तात्पर्य कहने का यही है कि जब वस्तु का सामान्य धर्म जान लिया तो विशेष धर्म भी जान लिया गया - अब वह वस्तु उस विशेषकी अपेक्षा श्रनधिगत कहां रही - वह तो अधिगत ही हो गई । अतः प्रमाण एकान्ततः अनधिगत को ही जानता है यह बात सिद्ध नहीं होती । तथा - इस समय का अस्तित्व पहिले अस्तित्व से तो अभिन्न ही है, और वह अस्तित्व प्रथम ही ग्रहण हो चुका है । मतलब - वृक्ष सामान्यरूप है उसीमें वटत्वादि विशेष हैं, सामान्य वृक्ष को जानते ही अविनाभावरूप से वर्तमान उसके वटत्वादि विशेष
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