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________________ [ १६ ] श्री ज्ञानमती माता जी को न्याय ग्रन्थों के पठन-पाठन से बड़ा ही प्रेम रहा है, वे अपनी सभी शिष्याओं को न्याय के परीक्षामुख से लेकर अष्टसहस्री आदि उच्चतम ग्रन्थों तक तथा व्याकरण कातंत्र, जैनेन्द्र प्रक्रिया आदि का अध्ययन अवश्य कराती हैं। सन् १९६१ में सीकर चातुर्मास के मध्य आ. श्री शिवसागरजी के करकमलों से क्षु० जिनमती जी की प्रायिका दीक्षा सोल्लास सम्पन्न हुई । प्रायिका जिनमती जी प्रारम्भ से ही निरन्तर आयिका ज्ञानमती माता जी के सान्निध्य में ही ज्ञानार्जन करती रही हैं । सन् १९६२ में पूज्य ज्ञानमती माताजी ने सम्मेद शिखर यात्रा के लिए संघ से अलग प्रस्थान किया, तब आ० पद्मावतीजी प्रा० जिनमतीजी, प्रा. प्रादिमतीजी, क्षु० श्रेयासमतीजी, उनके साथ थीं। यात्रा के प्रवास में भी आपने अपनी शिष्याओं को सदैव अध्ययन में ही व्यस्त रखा है। १९७० में जिस समय पूज्य आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमती माताजी अष्टसहस्री का अनुवाद कर रही थीं। उस समय जिनमती माताजी ने भी प्रमेय कमल मार्तण्ड का अनुवाद प्रारम्भ करके पूर्ण कर दिया था । इस प्रकार प्रा. जिनमतीजी ने १६ वर्ष तक निरन्तर आर्यिका रत्न श्री ज्ञानमती माताजी की छत्र छाया में रहकर सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूपी निधि को प्राप्त किया है। वास्तव में कोई माता तो केवल जन्म ही प्रदान करतो है लेकिन प्रायिका ज्ञानमती माताजी ने अपनी सभी शिष्याओं को घर से निकालकर उनको केवल चारित्र पथ पर ही नहीं प्रारूढ किया है बल्कि उनके ज्ञान का पूर्ण विकास करके निष्णात बनाया है। कई वर्षों से मुझे भी पूज्य माताजी की छत्र छाया में रहने का एवं उनसे कुछ ज्ञानार्जन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। कई बार जिनमतीजी ने स्वयं भी कहा है कि गर्भाधान क्रिया से न्यून में ज्ञानमती माताजी ही हमारी सच्ची माता हैं । इनका मेरे ऊपर बहुत उपकार है । स्वामी समंतभद्र ने भगवान को भी माता की उपमा दी है । "मातेव बालस्य हितावुशास्ता" भगवन् पाप माता के समान बालकों के लिये हित का अनुशासन करने वाले हैं, वास्तव में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र में हाथ पकड़ कर लगाने वाले गुरु ही सच्ची माता हैं। पाशा एवं पूर्ण विश्वास है कि विद्वद्वर्ग ही नहीं, वरन् समस्त जन समुदाय हिन्दी अनुवाद के द्वारा इस महान ग्रन्थ के विषय को सुगमता से समझ कर अपने ज्ञान को सम्यक् बनाकर भव-भव के दुखों से छूट कर अव्याबाध सुख को प्राप्त करेगा। इन्हीं शब्दों के साथ परम उपकारी, महान विदुषी, न्याय प्रभाकर प्रायिका श्री ज्ञानमती माताजी के अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग रूप महत् गुणों की प्राप्ति हेतु उन्हें अनंत अभिनन्दन करते हैं । सम्पादक : मोतीचन्द जैन रवीन्द्रकुमार जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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