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________________ ग्रन्थमाला सम्पादक की कलम से जैन वाङ्मय में न्याय ग्रन्थों का पठन-पाठन वर्तमान में बहुत ही अल्प मात्रा में है । जिसका प्रमुख कारण यह भी है कि न्याय ग्रन्थों के हिन्दी सरल भाषा में भाषान्तर कम ग्रन्थों के हुए हैं । जिस प्रकार से श्लोकवार्तिक और अष्टसहस्री आदि न्यायसार के महान ग्रन्थ हैं । उसी प्रकार से प्रमेय कमल मार्त्तण्ड का नाम भी विशिष्ट ग्रन्थों में आता है । सन् १९६६-७० की बात है, पूज्य श्रार्थिका रत्न श्री ज्ञानमती माता जी अष्टसहस्री ग्रन्थ का अनुवाद कर रही थीं, उसी समय कई बार आपने प्रमेयकमलमार्त्तण्ड के अनुवाद के लिए अपनी ज्येष्ठ सुशिष्या श्री जिनमती जी को प्रेरित किया और उसी प्रेरणा के फलस्वरूप आज प्रमेय कमल मार्त्तण्ड का हिन्दी भाषानुवाद पाठकों के हाथ में पहुँच रहा है । श्रार्यिका श्री जनमती माता जी के ज्ञान का इतना विकास किस प्रेरणा का स्रोत है, कि एक न्याय प्रागम के इतने विशिष्ट ग्रन्थ का भाषानुवाद करने की क्षमता प्राप्त करके साध्वी जगत में अपना नाम विश्रुत कर लिया है । इस सन्दर्भ में पूज्य प्रार्थिका रत्न श्री ज्ञानमती माताजी के उपकार को नहीं भुलाया जा सकता । सन् १९५५ की बात है प्रायिका ज्ञानमती माता जी क्षुल्लिका श्री वीर मती माता जी के पद में थीं उस समय आप चारित्र चक्रवर्ती आचार्यवर्य श्री शान्तिसागरजी महाराज की सल्लेखना के समय आचार्य श्री के दर्शनार्थं क्षु० विशाल मती जी के साथ दक्षिण भारत में विहार कर रही थीं, वहीं पर सोलापुर के निकट म्हसवड़ ग्राम जिला सातारा में ग्राफ्ने चातुर्मास किया । चातुर्मास के मध्य अनेक लड़कियाँ पूज्य माता जी से कातंत्र व्याकरण, द्रव्य संग्रह, तत्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर रही थीं। लड़कियों में एक 'प्रभावती' नाम की २० वर्षीया लड़की थी । जो विवाह नहीं करना चाहती थी। माता जी ने अपने वात्सल्य के प्रभाव से प्रभावती को आकर्षित किया और सन् १९५५ की दीपावली के शुभ दिन वीर प्रभु के निर्वारण दिवस में १० वीं प्रतिमा के व्रत दे दिए वहाँ से विहार कर पूज्य माता जी ने प्रभावती को एवं एक और सौभाग्यवती महिला सोनुबाई को साथ लेकर ग्रा० श्री वीर सागर जी के संघ में प्रवेश किया, और स्वयं आर्यिका दीक्षा लेकर ज्ञानमती नाम प्राप्त किया तथा व्र० प्रभावती को क्षुल्लिका दीक्षा दिलाकर जिनमती नाम करण किया । पूज्य माताजी ने क्षुल्लिका जिनमती को छहढाला, द्रव्य संग्रह से लेकर जिनेन्द्र प्रक्रिया, जैनेन्द्रमहावृत्ति, गोम्मटसार, लब्धिसार, मूलाचार, अनगार धर्मामृत, प्रमेय कमल मार्त्तण्ड, न्याय कुमुद चन्द्र राजवार्तिक आदि प्रारम्भ से लेकर अनेक उच्चतम ग्रन्थों का मूल से अध्ययन कराके निष्णात बना दिया । संघ में यद्यपि न्याय व्याकरण आदि ग्रन्थों का पठन-पाठन बहुत ही अल्प मात्रा में होता था । फिर भी न्याय ग्रन्थों की परम्परा को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिये पूज्य आर्यिका रत्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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