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प्रमेयक मलमार्त्तण्डे
नाप्यागमात्, “सर्वं खल्विदं ब्रह्म" [ मैत्र्यु० ] इत्याद्यागमस्य ब्रह्मणोऽर्थान्तरभावे द्वौ तप्रसङ्गात्, अनर्थान्तरभावे तु तद्वदागमस्याप्यसिद्धिप्रसङ्गः । तदेवं शब्दब्रह्मणोऽसिद्ध ेर्न शब्दानुविद्धत्वं सविकल्पकलक्षणं किन्तु समारोपविरोधिग्रहणमिति प्रतिपत्तव्यम् ।
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होते हुए जगत में देखे नहीं जाते अतः इससे यही निश्चय होता है कि शब्दमय संसार नहीं है, संसार तो भिन्न भिन्न चेतन अचेतन स्वभाव वाला है ।
आगम के द्वारा भी शब्दब्रह्म की सिद्धि नहीं हो सकती है, "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" इत्यादि जो आगम वाक्य हैं वे यदि उस शब्दब्रह्म से प्रर्थान्तरभूत हैं तो द्वैतकी प्रसक्ति आती है और यदि वे शब्दब्रह्म से अनर्थान्तरभूत हैं - प्रभिन्न हैं तो इस पक्ष में शब्दब्रह्म की तरह उन श्रागम वाक्यों की भी सिद्धि नहीं होती है । अतः शब्दब्रह्म की सिद्धि के अभाव में ज्ञानमें शब्दानुविद्धत्व होना यही उसमें सविकल्पकता है यह कथन सर्वथा गलत ठहरता है । ज्ञानमें यही सविकल्पकता है कि समारोप से रहित होकर उसके द्वारा वस्तु का ग्रहण होना इस प्रकार सविकल्प प्रमाण की सिद्धि में प्रसंगवश ये हुए शब्दाद्वैत का निरसन टीकाकार ने किया है ।
* शब्दाद्वैत का निरसन समाप्त*
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शब्दाद्वैत के निरसन का सारांश
शब्दाद्वैत को स्वीकार करने वाले श्रद्वैतवादियों में भर्तृहरिजी हैं । इनका ऐसा कहना है कि ज्ञान को जैन आदिकों ने जो सविकल्प माना है उसका अर्थ यही निकलता है कि ज्ञान शब्द से अनुविद्ध होकर ही अपने ग्राह्यपदार्थ का निश्चय कराता है, तात्पर्य कहने का यही है कि जितने भी ज्ञान हैं वे सब शब्द के बिना नहीं होते, शब्दानुविद्ध होकर ही होते हैं । पदार्थ भी शब्दब्रह्म की ही पर्याय हैं । शब्द- वाग्- के चार भेद इनके यहां माने गये हैं । जो इस इकार से हैं - ( १ ) वैखरी वाक्, (२) मध्यमा वाक्, (३) पश्यन्ती वाक् और ( ४ ) सूक्ष्मा वाक् । कहा भी हैवैखरी शब्दनिष्पत्तिः मध्यमा श्रुतिगोचरा । द्योतितार्था च पश्यन्ती सूक्ष्मा वागनपायिनी ॥ १ ॥
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