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________________ शब्दाद्वतविचारः च्चास्याऽसिद्धिः । शब्दान्वित रूपाधारार्थासत्त्वेपि हि ते तदन्वितत्वेन त्वया कल्प्यन्ते । तथाभूताच्च हेतोः कथं पारमार्थिकं शब्दब्रह्म सिद्धय ेत् ? साध्यसाधनविकलश्च दृष्टान्तो घटादीनामपि सर्वथैकमयत्वस्यैकान्वितत्वस्य चासिद्ध ेः । न खलु भावानां परमार्थेनैकरूपानुगमोहित, सर्वार्थानां समानाऽसमानपरिणामात्मकत्वात् किंच, शब्दात्मकत्वेऽर्थानाम् शब्दप्रतीतौ सङ्के ताग्राहिणोप्यर्थे सन्देहो न स्यात्तद्वत्तस्यापि प्रतीतत्वात्, अन्यथा तादात्म्यविरोधः । अग्निपाषाणादिशब्दश्रवणाच्च श्रोत्रस्य दाहाभिघातादिप्रसङ्गः । तन्नानुमानतोपि तत्प्रतीतिः । कानों में चोट लग जाने का प्रसङ्ग प्राप्त होगा, क्योंकि उन शब्दों से यदि ऐसा नहीं होता तो मानना चाहिये कि शब्द और अर्थ का इसलिये अनुमान से भी शब्दब्रह्म की सिद्धि नहीं होती और न होती है । Jain Education International १३५ पदार्थ अभिन्न है, तादात्म्य नहीं है, उसकी प्रतीति ही भावार्थ - शब्दाद्वैतवादी का यह हठाग्रह है कि समस्त पदार्थ शब्दमय ही हैं, जैसे कि मिट्टी से बने हुए घटादि पदार्थ मिट्टीमय ही होते हैं, परन्तु ऐसा यह कथन इनका न्याय संगत सिद्ध नहीं होता, प्रत्यक्ष प्रमाण से ही जब मय प्रतीत नहीं होते तो फिर उन्हें शब्दमय अनुमान के द्वारा करना केवल यह दुस्साहस जैसा ही है, यदि शब्दमय पदार्थ होते तो जिस व्यक्ति को विश्व के पदार्थ शब्दसिद्ध करने का प्रयास " घट शब्द का वाच्य कंबुग्रीवादिमान पदार्थ होता है" ऐसा संकेत नहीं मालूम है उसे भी घट शब्द के सुनते ही उसका बोध होजाना चाहिये, परन्तु संकेत ग्रहण किये बिना शब्द श्रवण मात्र से तद्वाच्यार्थ की प्रतीति नहीं होती, जब किसी अन्य देशका व्यक्ति किसी दूसरे देश में पहुँचता है तो उसको उस देश के नामों के साथ उस पदार्थ का संकेत नहीं होने से उस उस शब्द के सुनने पर भी उन उन शब्दों के वाच्यार्थ का बोध नहीं होता है, जैसे उत्तरीय पुरुष जब दक्षिण देश में पहुंचता है तो उसे यह पता नहीं चलता है कि "हालु मोसरू, मजिगे" ये शब्द किन २ वाच्यार्थ के कथक हैं, तथा यदि ऐसा ही माना जावे कि शब्दमय ही पदार्थ है तो मुखसे जब "अग्नि" इस प्रकार का शब्द निकलता है तो उसके निकलने से मुख और सुनने वाले के कानों को दग्ध हो जाने का प्रसङ्ग प्राप्त होता है । और क्षुरा शब्द उच्चरित होने पर मुख के कट जाने का प्रसङ्ग प्राप्त होता है । इसी तरह मोदक शब्द के सुनने वाले के उदर की पूर्ति हो जानेका प्रसङ्ग प्राप्त होता है । किन्तु ये सब कार्य उन २ शब्दों के उच्चरित होने पर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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