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________________ १०६ प्रमेयकमलमार्तण्डे तस्याप्रामाण्यं पुनः स्पष्टाकारविकलत्वात्, अगृहीतग्राहित्वात्, असति प्रवर्तनात्, हिताहितप्राप्तिपरिहारासमर्थत्वात्, कदाचिद्विसंवादात्, समारोपानिषेधकत्वात्, व्यवहारानुपयोगात्, स्वलक्षणागोचरत्वात्, शब्दसंसर्गयोग्यप्रतिभासत्वात्, शब्दप्रभवत्वात्, ( ग्राह्यार्थं विना तन्मात्रप्रभव त्वाद्वा ) गत्यन्तराभावात् ? न तावत्स्पष्टाकारविकलत्वात्तस्याऽप्रामाण्यम् ; काचाभ्रकादिव्यवहितार्थदूरपादपादिप्रत्यक्षस्याप्यप्रामाण्यप्रसङ्गात् । न चैतद्य क्तम्, अज्ञातवस्तुप्रकाशनसंवादलक्षणस्य प्रमाणलक्षणस्य सद्भावात् । प्रमाणान्तरत्वप्नसङ्गो वा; अस्पष्टत्वालिङ्गजत्वाभ्यां प्रमाणद्वयानन्तभूतत्वात् । नापि गृहीतग्राहित्वात् ; अनुमानस्याप्यप्रामाण्यानुषङ्गात्, व्याप्तिज्ञानयोगिसंवेदन विकल्प प्रमाण है, संवादक होने से तथा पदार्थ के जानने में साधकतम होने से अनिश्चित (अपूर्वार्थ) पदार्थ का निश्चय कराने वाला होने से तथा प्रमाता की अपेक्षा लेकर उत्पन्न होता है इसलिए । जैसे अनुमान पदार्थ का निश्चायक है। इस प्रकार चार हेतुओं के द्वारा विकल्प को प्रमाण रूप से सिद्ध किया है, लेकिन निर्विकल्प प्रमाण सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि वह इससे विपरीत है अर्थात संवादक नहीं, साधकतम नहीं, निश्चायक नहीं, और प्रमाता के द्वारा अपेक्षणीय भी नहीं है, जैसे कि सन्निकर्षादि अप्रमाण हैं। आप बौद्ध विकल्प को प्रमाण नहीं मानते हो सो क्यों ? क्या वह स्पष्ट आकार से रहित है इसलिए, अथवा गृहीत ग्राही है, पदार्थ के असत् होने पर प्रवृत्ति करता है, हित प्राप्ति तथा अहित परिहार करने में असमर्थ है कदाचित विसंवादी होने से, समारोप का निषेधक न होने से व्यवहार में उपयोगी न होने से स्वलक्षण को जानता नहीं इसलिये शब्द संसर्ग से प्रतिभास कराता है इसलिये शब्द से उत्पन्न होने से ग्राह्यार्थ के बिना उत्पन्न होने से, इस प्रकार इन ग्यारह कारणों से आपने उस विकल्प को अप्रमाण माना है क्या ? इनसे और तो कोई कारण हो नहीं सकता ? प्रथम पक्ष - स्पष्टाकार रूप विकल्प नहीं होने से उसे अप्रमारण नहीं कह सकते, अन्यथा कांच, अभ्रकादि से ढके हुए या दूरवर्ती वृक्ष पर्वतादि का जो प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, उसे भी अप्रमाण मानना पड़ेगा ? क्योंकि वह स्पष्टाकार से विकल है, किन्तु उसे अप्रमाण तो कहते नहीं, क्योंकि वह अज्ञात वस्तु का प्रकाशन करना रूप प्रमाणके लक्षण से युक्त है । अथवा ऐसे ज्ञान को कोई तीसरा प्रमाण मानना पड़ेगा क्योंकि वह अस्पष्ट है इसलिए प्रत्यक्ष नहीं रहा और हेतु से उत्पन्न हुआ नहीं, अतः वह अनुमान भी नहीं हुआ । अत: वह विकल्प दोनों में ही शामिल नहीं हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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