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बौद्धाभिमतनिर्विकल्पकप्रत्यक्षस्य खंडनम्
१०५ स्वलक्षणगोचरोऽसौ प्रत्यक्षस्य तन्नियमहेतुत्वाद्रूपादिवत् । रूपाधु ल्लेखित्वाद्विकल्पस्य तबलातन्नियमस्यैवाभ्युपगमे-प्रत्यक्षस्याभिलापसंसर्गोपि तद्वदनुमीयेत-विकल्पस्याभिलपनाभिलप्यमानजात्याद्य ल्लेखिततयोत्पत्त्यन्यथानुपपत्तेः। तथाविधदर्शनस्याप्रमाणसिद्धत्वाच्च आत्मैवाहम्प्रत्ययप्रसिद्धः प्रतिबन्धकापायेऽभ्यासाद्यपेक्षो विकल्पोत्पादकोऽस्तु किमदृष्टपरिकल्पनया ? ततो विकल्पः प्रमाणम् संवादकत्वात्, अर्थपरिच्छित्तौ साधकतमत्वात्, अनिश्चितार्थनिश्चायकत्वात्, प्रतिपत्त्रपेक्षणीयत्वाच्च अनुमानवत्, नतु निर्विकल्पकं तद्विपरीतत्वात्सन्निकर्षादिवत् ।
भावार्थ-जब बौद्धाभिमत विकल्प ज्ञान निर्विकल्प प्रमाण का विषय जो रूपादिक हैं उनको ग्रहण करता है तब उसी निर्विकल्प का अन्य विषय जो स्वलक्षण है उसका भी प्रतिनियम करेगा ही अर्थात् स्वलक्षण को भी ग्रहण करेगा, इस प्रकार का दोष आता है अत: प्रत्यक्ष के सहकारी वासना से विकल्प उत्पन्न हुआ है और इसलिए रूपादिका प्रतिनियम करता है, ऐसा क्षणिकवादी कह रहे हैं, वह असत्य ठहरता है।
बौद्ध- विकल्प में यह नीला है, यह पीला है इस प्रकार रूपादि का उल्लेख देखा जाता है अत: निश्चय होता है कि निर्विकल्प के विषयों में से सिर्फ रूपादि को जानने वाले विकल्प उत्पन्न हुया करते हैं । यह नीला है, इत्यादि उल्लेख के समान "यह स्वलक्षण है" ऐसा उल्लेख विकल्प करता नहीं इसलिए मात्र रूपादि का ही उल्लेख करने का नियम बन जाता है।
जैन—ऐसा स्वीकार करें तो फिर हम भी अनुमान के द्वारा उसी प्रत्यक्ष में शब्द संसर्ग भो सिद्ध कर देंगे । देखिये-प्रत्यक्ष ज्ञान शब्द संसर्गी है क्योंकि उससे होने वाले विकल्प में अभिलपन = शब्द और अभिलप्य - वाच्य रूप जाति आदि के उल्लेख की अन्यथानुपपत्ति है। इस प्रकार विकल्प में शब्द का संसर्ग देख कर प्रत्यक्ष में भी शब्द का संसर्ग मानना पड़ेगा जो बौद्ध मत के विरूद्ध पड़ता है।
__ तथा दूसरी बात यह है कि तुम जैसा निर्विकल्प दर्शन का वर्णन करते हो वैसा प्रमाण रूप सिद्ध होता नहीं। हां जो आत्मा है उस रूप दर्शन को मानो तो वह प्रहं प्रत्यय से सिद्ध हो रहा है, उसीके जब प्रतिबंधक ज्ञानावरणादि कर्मका क्षयोपशम होता है तब वही अभ्यासादि के कारण विकल्प को उत्पन्न करता है यही बात सत्य है फिर काहे को उस निर्विकल्पक दर्शन की कल्पना करते हो । अतः यह सिद्ध हुआ कि
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