SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८ प्रमेयकमलमार्तण्डे स्वलक्षणानध्यवसायित्वात्तद्विकल्पस्यादोषोऽयम्, इत्यन्यत्रापि समानम् । न हि नीलादिविकल्पोपि स्वलक्षणाध्यवसायी; तदनालम्बनस्य तदध्यवसायित्वविरोधात् । 'मनोराज्यादिविकल्प कथ तदध्यवसायी' ? इत्यप्यस्यैव दूषणं यस्यासौ राज्याद्यग्राहकस्वभावो नास्माकम्, सत्यराज्यादिविषयस्य तद्ग्राहकस्वभावत्वाभ्युपगमात् ।। न चास्य विकल्पोत्पादकत्वं घटते स्वयमविकल्पकत्वात् स्वलक्षणवत्, विकल्पोत्पादनसामर्थ्या बौद्ध-मनोराज्यादि रूप ( मन के मनोरथ रूप ) विकल्प भी स्वलक्षण से नहीं हुए हैं फिर वे उनका निश्चय जैसे करते हैं वैसे ही नीलादि विकल्प भी स्वलक्षण से उत्पन्न न होकर उनका अध्यवसाय करेंगे। जैन-यह दोष तो तुमको ही आवेगा, क्योंकि तुमने' मनोराज्यादि विकल्प को राज्यादिक पदार्थ का ग्राहक नहीं माना है, हमको क्या दोष ? हम तो मनोराज्यादि विकल्प का विषय भी सत्य राज्य रूप पदार्थ ही मानते हैं । भावार्थ- बौद्ध के यहां निर्विकल्प प्रमाण का विषय स्वलक्षण माना है और सविकल्पक प्रमाण जो कि मात्र संवृति से प्रमाणभूत है उसका विषय क्षण या विकल्प्य रूप पदार्थ माना है। उनका कहना है कि निर्विकल्प ज्ञान हो वास्तविक प्रमाण है क्योंकि वह वास्तविक वस्तु को जानता है । स्वलक्षण वस्तु का स्वरूप है और उसको निर्विकल्प ज्ञान जानता है तथा सामान्य और विशेष में से विशेष को जानता है । सविकल्प ज्ञान सामान्य को जानता है । निर्विकल्प प्रमाण को लक्षण करते हुए कहा है कि “कल्पना पोढमभ्रातं प्रत्यक्षम्" कल्पना अर्थात् नाम जात्यादि रूप कल्पना को जो हटाता है तथा जो भ्रात नहीं है वह प्रत्यक्ष प्रमाण है । जैनाचार्य ने कहा कि जब निर्विकल्पक प्रमाण वस्तु का निश्चय ही नहीं कराता तब वह प्रमाण कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं। इस पर बौद्ध ने कहा कि स्वयं निश्चय नहीं कराता है, किन्तु निश्चय का कारण है, अत: प्रमाण है। तब प्राचार्य ने समझाया कि निश्चय का निमित्त होने मात्र से यदि निर्विकल्प प्रमाण भूत है तब संशयादि विकल्पों का कारण भूत जो निर्विकल्प है उसको भी सत्य मानना पड़ेगा। इस पर बौद्ध ने कहा कि संशयादि रूप विकल्प को पैदा करने वाला निर्विकल्प प्रमाण स्वलक्षण का अवलम्बन लेकर नहीं हुआ है अतः सत्य नहीं है । तब जैन ने उत्तर दिया कि नीलादि विकल्प भी स्वलक्षण का अध्यवसाय नहीं करते हैं फिर उनको सत्य विकल्प रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy