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बौद्धाभिमत निर्विकल्पकप्रत्यक्षस्य खंडनम् र्थसाक्षात्कारिणो विपरीतारोपविरुद्धस्याध्यक्षस्यानिश्चयात्मकत्वायोगात् । तत्त्वे वा अश्वविकल्पाद्व्युत्यितचित्तस्य गवि स्मृतिर्न स्यात् क्षणिकत्वादिवत् । नामसंश्रयात्मनो विकल्पस्यात्र निषेधे तु न किञ्चिदनिष्ट म् । न चाशेषविकल्पानां नामसंश्रयतैव स्वरूपम् ; समारोपविरोधिग्रहणलक्षणत्वात्तषा मित्यग्रे व्यासतो वक्ष्यामः । न चानिश्चयात्मनः प्रामाण्यम् ; गच्छत्तरणस्पर्शसंवेदनस्यापि तत्प्रसङ्गात् । निश्चयहेतुत्वात्तस्य प्रामाण्य मित्ययुक्तम् ; संशयादिविकल्पजनकस्यापि प्रामाण्यप्रसङ्गात् ।
ही उस व्यक्ति को गाय में स्मृति न होती जैसे कि क्षणिकादि की नहीं होती है । हां इस प्रत्यक्ष में शब्द के आश्रय से होने वाले विकल्प का निषेध करें तो हम जैन को कुछ अनिष्ट नहीं है । यह एकांत तो है नहीं कि सारे विकल्प शब्दाश्रित ही हैं, क्योंकि विकल्प समारोप के विरोधी ज्ञान स्वरूप हुआ करते हैं। इस बात को हम शब्दाद्वैत के प्रकरण में विस्तार से कहने वाले हैं । जो अनिश्चयात्मक होता है उसमें प्रमाणता नहीं होती है । यदि अनिश्चयात्मक ज्ञान भी प्रमाण हो तो चलते हुए व्यक्ति को तृणादि का जो अनध्यवसाय रूप ज्ञान होता है उसे भी प्रमाण मानना पड़ेगा।
बौद्ध-निर्विकल्प ज्ञान निश्चय कराने में कारण भूत जो विकल्प है उसकी उत्पत्ति में निमित्त पड़ता है अत: निर्विकल्प ज्ञान को प्रमाण माना गया है।
जैन-यह कथन भी ठीक नहीं, ऐसा माने तो जो निर्विकल्प ज्ञान संशयादि रूप विकल्पों को पैदा करते हैं उन्हें भी प्रमाण मानना होगा।
बौद्ध-देखिये संशयादि रूप विकल्प पैदा करने वाले निर्विकल्प ज्ञान स्वलक्षण को तो जानते नहीं अतः उनसे होने वाले संशयादि रूप विकल्प भी अप्रमाण होते हैं इसलिये जो स्वलक्षण का अध्यवसाय करते हैं ऐसे विशिष्ट निर्विकल्प से जो विकल्प होंगे वे तो सच्चे ही रहेंगे।
जैन-यह बात तो विकल्प के पक्ष में भी समान ही है क्योंकि नीलादि विकल्प भी स्वलक्षण को जानते नहीं क्योंकि वे स्वलक्षण के आलम्बन से हुए ही नहीं हैं, बिना उसके आलम्बन के उसको जानने में विरोध प्राता है । इस प्रकार नीलादि विकल्प जैसे स्वलक्षण के ग्राहक न होकर भी प्रमाणिक माने हैं वैसे बौद्ध को संशयादि विकल्पों को भी प्रमाणिक मानना ही होगा।
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