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________________ [६] अकलङ्क वचोऽम्भोधे रुद्दध्र येन धीमता । न्याय विद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥१॥ अर्थात् जिन बुद्धिमानने भट्टाकलंक स्वामीके वचनरूप समुद्रसे न्यायविद्यारूपी अमृतको निकाला उन आचार्य माणिक्य नंदीको मैं ( अनंतवीर्य ) नमस्कार करता हूँ । इससे प्रकट होता है कि श्री माणिक्यनंदी भट्टाकलं कदेवके उत्तरवर्ती हैं, भट्टाकलंक देवका समय ईसाकी आठवीं शताब्दी माना गया है प्रतः पाठवीं शती के पश्चात् माणिक्यनंदीका समय बैठता है । प्राचार्य प्रभाचंद्र जो कि इनके शिष्य थे परीक्षामुखके टीकाकार हैं इनका समय ईसाको दसवीं शताब्दीका पूर्वार्ध है ऐसा विद्वानोंका कहना है । इसतरह श्री माणिक्यनंदीका समय ईसाकी नौवीं शताब्दी सिद्ध होता है। ख- प्रज्ञाकर गुप्त जो ईसाकी आठवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए थे उनके मतका खण्डन परीक्षामुख में पाया जाता है इससे भी इनका समय ६ शती ठहरता है। ग- आचार्य माणिक्यनंदीके शिष्य नयनंदीने सुदर्शन चरितको वि० सं० ११०० में पूर्ण किया था प्रतः उनके गुरुका समय उनसे पहले होना निश्चित है, विक्रम संवत् में और ईसवी सन्में ५७ वर्षका अन्तर है इस हिसाबसे माणिक्यनंदी ईसाकी नौवीं शताब्दीके ठहरते हैं । कृति श्री माणिक्यनंदीकी एक मात्र कृति परीक्षामुख उपलब्ध होता है जो अपनी सानीका जैन न्याय में एक मात्र सूत्र ग्रन्थ है। ग्रन्थ का परिचय जैनागममें संस्कृत भाषामें सूत्र बद्ध रचनाका प्रारम्भ भगवत उमास्वामीने किया । न्याय में प्रस्तुत ग्रन्थ ( परीक्षामुख ) प्राद्य सूत्र ग्रन्थ माना जाता है । विषय-परीक्षामुख ग्रन्थ का नाम निर्देश "परीक्षा" शब्दसे प्रारम्भ होता है, प्रसिद्ध धर्मभूषण यति की रचना न्यायदीपिका में परीक्षाका लक्षण इसप्रकार दिया है __ "विरुद्ध नाना युक्ति प्राबल्य दौर्बल्याव धारणाय प्रवर्त्तमानो विचारः परीक्षा"। अर्थात् विरुद्ध नाना युक्तियोंकी प्रबलता और दुर्बलताके अवधारण करने के लिये प्रवर्त्तमान विचार को परीक्षा कहते हैं । इस लक्षणके अनुसार इस ग्रन्थ में प्रमाण और प्रमाणाभासोंका नाना युक्तियोंसे प्रकाश डालकर उनकी सही परीक्षा की है इसी कारण इस ग्रन्थ की सार्थकता है । मुख शब्द अग्रणी वाचक है अत: यह ग्रन्थ प्रमाण और प्रमाणाभासको कहने में अग्रणी है । अथवा परीक्षा का अर्थ न्याय है और मुख शब्द का प्रवेशद्वार है न्याय जैसे जटिल विषयमें प्रवेश पाने के लिये यह द्वार सदृश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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