SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [८] उसी चिर वांछित श्रेष्ठ उपक्रमको पूज्या आयिका जिनमति माताजी ने किया। मैं उनके इस कार्यकी अत्यन्त सराहना करता हूँ तथा पूज्या माताजीके विद्यागुरु आर्यिकारत्न विदुषी ज्ञानमती माताजीको भी कोटिशः धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने ऐसी शिष्याको तैयार किया। आचार्य श्री मारिणक्यनंदी प्रमेय कमल मार्तण्ड के रचयिता प्रभाचन्द्राचार्य श्री माणिक्यनंदी आचार्यको गुरु मानते थे जैसाकि लिखा है गुरुः श्री नंदी माणिक्यो नंदिताशेष सज्जनः । नन्दिताद् दुरित कान्तरजा जैनमतार्णवः ॥१॥ इससे सिद्ध होता है कि मारिणक्य नंदी प्रभाचन्द्राचार्यके गुरु थे, इनकी रचना एक मात्र परीक्षामुख है। यद्यपि उमास्वामी प्राचार्य द्वारा रचित तत्त्वार्थ सूत्रको रचना सूत्रसाहित्यमें हो चुकी थी, किन्तु न्याय विषयमें सूत्र बद्ध रचना सर्व प्रथम इन्होंने की। प्राचार्य मारिणक्यनंदी पर "अकलंक न्याय" की छाप है उन्होंने अकलंक देवकी रचनायें लघीयस्त्रय, सिद्धि विनिश्चय आदि का पूर्ण रूपेण मंथन कर परीक्षामुख ग्रन्थ रचा है। __ जिस प्रकार रत्नोंमें बहुमूल्य रत्न माणिक्य होता है उसकी क्षमता अन्य रत्न नहीं करते उसी प्रकार माणिक्य नंदीके सूत्र भी बहुमूल्य रत्न राशिके समान हैं उनकी क्षमता अन्य सूत्र नहीं कर सकते, इसकी पुष्टि नीतिकारने भी की है “शैले शंले न माणिक्यम्" । शास्त्रानुसार सूत्रमें जो विशेषतायें होनी चाहिये वे सब परीक्षामुख सूत्रोंमें पायी जाती हैं। सूत्रका लक्षण अल्पाक्षर मसन्दिग्धं सार वद् विश्वतोमुखम् । अस्तोभ मनवद्यञ्च सूत्रं सूत्रविदो विदुः ।।१।। इस परिभाषाके अनुसार श्री माणिक्य नंदीके सूत्र अल्पाक्षरी हैं, संदेह रहित हैं, सार से परिपूर्ण हैं विश्वतोमुख निर्दोष हेतुमान् तथा तथ्यपूर्ण हैं । समयश्री माणिक्यनंदीके समय निर्धारणमें प्रमुख तीन प्रमाण दृष्टिगत होते हैं क- परीक्षामुखके टीकाकार आचार्य अनंत वीर्यने सूत्रकार माणिक्यनंदीको नमस्कार किया तब अकलंक देवको याद किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy