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प्रमेयकमलमार्तण्डे
स्वरूपं वै ( पमवैशद्य) परिकल्पयन् कथं परीक्षको नाम ? अनवस्थाप्रसङ्गात्-ततोप्यपरस्वरूपं तदिति परिकल्पनप्रसङ्गात् । युगपद्वृत्त श्चाभेदाध्यवसाये दीर्घशष्कुलीभक्षणादौ रूपादिज्ञानपञ्चकस्यापि सहोत्पत्त रभेदाध्यवसायः किन्न स्यात् ? भिन्नविषयत्वात्तेषां तदभावे-अत एव स प्रकृतयोरपि न स्यात् क्षणसन्तानविषयत्वेनानयोरप्यस्याविशेषात् । लघुवृत्त श्चाऽभेदाध्यवसाये-खररटित
हुआ करती है सो वह भी दोनों ज्ञानों में एकत्व का आरोप करा देती है और इसी के निमित्त से पीछे होने वाले विकल्प में वैशद्य मालूम पड़ता है जैसे कि शीघता से बोले गये वाक्यों में, अंतिम वाक्य में, ही वैशद्य प्रतीत होता है ।
जैन-ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि एक मात्र विकल्प को छोड़कर दूसरे की प्रतीति ही नहीं है । जब वे भिन्न-भिन्न रूप से प्रतीत होते, तब उन दोनों में से एक का दूसरे में आरोप होता जैसे कि मित्र में चैत्र का। विकल्प अस्पष्ट है और निर्विकल्प स्पष्ट है यह प्रत्यक्ष से तो प्रतीत होता नहीं फिर भी जिसमें विशदता दिखाई देती है उसे तो छोड़ देवे और जिसमें वह नहीं दिखती वहां उसकी कल्पना करे तो वह परीक्षक कैसे कहलायेगा ? तथा-ऐसी स्थिति में कोई स्वरूप व्यवस्था भी नहीं बन सकेगी क्योंकि सविकल्पक ज्ञान जैसे विशद धर्म रहित है वैसे अविशद धर्म से भी वह पृथक् है ऐसी कल्पना भी की जा सकती है । “एक साथ होने से विकल्पनिर्विकल्प में अभेद मालूम पड़ता है" ऐसा कहना भी ठीक नहीं है । बड़ी तथा कड़ी पूड़ी खाते समय रूपादि पाचों ज्ञानों की प्रवृत्ति भी साथ-साथ होती है अत: उनमें भी अभेद का प्रसंग प्राप्त होगा अर्थात् बड़ी पूड़ी खाते समय उसका रूप, रस, गन्ध, कड़-कड़ शब्द तथा स्पर्श ये पांचों ज्ञान एक साथ होते हुए के समान मालूम पड़ते हैं परन्तु फिर भी उनमें भिन्नता ही मानी गयी है। यदि कहा जाय कि उन पांचों का विषय पृथक-पृथक है उन्हें एक कैसे माना जा सकता है तो फिर इन विकल्प-निर्विकल्प में भी भिन्न भिन्न विषयता है। देखो-विकल्प का विषय सामान्य अर्थात् संतान है और निर्विकल्प का विषय क्षण अर्थात् स्वलक्षण है। यदि कहा जावे कि विकल्प और निर्विकल्प भिन्न भिन्न तो हैं किन्तु बहुत शीघ्र ही होने से उनमें अभेद मालूम पड़ता है सो यह कथन भी युक्ति-युक्त नहीं है क्योंकि गर्दभ की रेकने आदि रूप क्रिया में भी लघुवृत्ति होने से अभेद मानना पड़ेगा तथा कपिल के यहां बुद्धि और चैतन्य में भेद की उपलब्धि नहीं होने पर भी जैसे भेद माना गया है वह भी स्वीकार कैसे नहीं करना होगा ? क्योंकि तुमने भी विकल्प मात्र एक ही ज्ञान में सविकल्प और
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