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________________ बौद्धाभिमत-निविकल्पप्रमाणः ८७ विरोधिग्रहणस्य निश्चयस्वरूपत्वात् । प्रमाणत्वाद्वा तत्तदात्मकमनुमानवदेव । परनिरपेक्षतया वस्तुतथाभावप्रकाशकं हि प्रमाणम्, न चाविकल्पकम् तथा-नीलादौ विकल्पस्य क्षणक्षयेऽनुमानस्यापेक्षणात् । ततोऽप्रमाणं तत् वस्तुव्यवस्थायामपेक्षितपरव्यापारत्वात् सन्निकर्षादिवत् । नचेदमनुभूयतेअक्षव्यापारानन्तरं स्वार्थव्यवसायात्मनो नीलादिविकल्पस्यैव वैशद्य नानुभवात् । नच विकल्पाविकल्पयोयुगपदवृत्तलघुवृत्ता एकत्वाध्यवसायाद्विकल्पे वैशद्यप्रतीति।, तद्व्यतिरेकेणापरस्याप्रतीतेः । भेदेन प्रतीतौ ह्यन्यत्रान्यस्यारोपो युक्तो मित्रे चैत्रवत् । न चाऽस्पष्टाभो विकल्पो निर्विकल्पकं च स्पष्टाभं प्रत्यक्षतः प्रतीतम् । तथाप्यनुभूयमानस्वरूपं वैशद्य परित्यज्याननुभूयमान और सब प्रत्यक्षादि प्रमाणों में वह निश्चायकपना सिद्ध किया जाता है । समारोप के विरुद्ध रूप से ग्रहण करना यही तो निश्चायकत्व है । प्रमाणत्व हेतु के द्वारा भी उसका निश्चायकपना सिद्ध होगा। अनुमान के समान अर्थात प्रमाण व्यवसायात्मक होता है सम्यग्ज्ञान होने से, अविसंवादी होने से, अथवा निर्णयात्मक होने से इत्यादि हेतुत्रों के द्वारा भी प्रमाण में व्यवसायात्मकत्व सिद्ध है। किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा न रखते हुए वस्तु को यथार्थ रूप से जानना, यही प्रमाण है। निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं है क्योंकि निर्विकल्पक के विषय जो नीलादि हैं उनमें क्षणिकपने को सिद्ध करने के लिये अनुमान की अपेक्षा होती है । अतः अनुमान से सिद्ध किया जाता है कि वह निर्विकल्पक अप्रमाण है क्योंकि वस्तु व्यवस्था के लिए उसे तो दूसरे की अपेक्षा करनी पड़ती है जैसे कि सन्निकर्षादि को ज्ञान की अपेक्षा करनी पड़ती है । दूसरी बात यह है कि यह निर्विकल्पक अनुभव में तो आता नहीं, इन्द्रियों की प्रवृत्ति के बाद अपने और पर के निश्चय रूप नीलादि विकल्प का ही स्पष्ट रूप से अनुभवन होता है। बौद्ध-विकल्प और निर्विकल्प एक साथ होते हैं इसलिए, अथवा वे क्रमक्रम से होकर भी अतिशीघ्र होते हैं इसलिये एक रूप में प्रतीति में आकर अकेले विकल्प में ही स्पष्टता प्रतीत होती है। विशेषार्थ- सविकल्पक ज्ञान और निर्विकल्पक ज्ञान दोनों में एक साथ मन की प्रवृत्ति होती है अत: अज्ञानी जन उन दोनों को एक रूप ही मानने लग जाते हैं। कभी-कभी उन सविकल्पक और निर्विकल्पक में अति शीघता से भी मन की प्रवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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