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________________ ६८ प्रमेयकमलमार्तण्डे नापि जन्यः; यतोऽसौ क्रियात्मकः, प्रक्रियात्मको वा ? प्रथमपक्षे किं क्रिया परिस्पन्दात्मिका, तद्विपरीता वा ? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः; निश्चलस्यात्मनः परिस्पन्दात्मकक्रियाया अयोगात् । नापि द्वितीयः; तथाविधक्रियायाः परिस्पन्दाभावरूपतया फलजनकत्वायोगात्, अभावस्य फलजनकत्वविरोधात् । न चासौ परिस्पन्दस्वभावा तद्विपरीता वा-कारकफलान्तरालवत्तिनी प्रमाणतः प्रतीयते । तन्न क्रियात्मको व्यापारः । नापि तद्विपरीतः; अक्रियात्मको हि व्यापारो बोधरूपः, अबोधरूपो वा ? बोधरूपत्वे; प्रमातृवत्प्रमाणान्तरगम्यता न स्यात् । अबोधरूपता तु व्यापारस्यायुक्ता; चिद्र पस्य ज्ञातुरचिद्र पव्यापारायोगात् । 'जानाति' इति च क्रिया ज्ञातृव्यापारो भवताभिधीयते, स च बोधात्मक एव युक्तः । जैन-ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि जो कारकों के आधीन नहीं तो उसमें देश काल स्वरूप आदिका नियम ही बनता नहीं-तब हमेशा ही ज्ञाता का व्यापार होगा और हमेशा ही अर्थ प्रकाशनरूप कार्य भी होगा, इससे वही निद्रित मूछित आदि रूप व्यवहार के समाप्त होनेका दोष आयेगा, इसलिये ज्ञाता का व्यापार कारकों से अजन्य है यह पक्ष गलत होजाता है । ज्ञाता का व्यापार कारकों से जन्य है यदि ऐसा पक्ष माना जाय तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि यदि वह जन्य है तो क्या वह क्रियात्मक है या प्रक्रियात्मक है ? यदि क्रियात्मक है, तो वह क्रिया परिस्पन्दवाली है या अपरिस्पन्दवाली है ? परिस्पन्दवाली क्रिया उसे मान नहीं सकते, क्योंकि निश्चल आत्मा में ऐसी क्रिया होती नहीं है, ऐसा आपने भी माना है । यदि वह अपरिस्पन्दरूप है तो ऐसी क्रियासे परिस्पन्दरूपवाला कार्य हो नहीं सकता, क्योंकि प्रभाव कोई फल पैदा नहीं करता, दूसरी बात यह है कि ज्ञातृव्यापार रूप क्रिया चाहे परिस्पन्दरूप हो चाहे अपरिस्पन्द रूप हो कारक और फल अर्थात्-प्रमाता और अर्थ प्रकाशन के बीच में वह किसी भी प्रमाण से प्रतीति में नहीं आती है, इसलिए ज्ञाता के व्यापार को क्रियात्मक नहीं मान सकते, यदि ऐसा कहा जाय कि वह ज्ञातृव्यापार अक्रियात्मक है सो हम पूछते हैं कि वह प्रक्रियात्मक व्यापार बोधरूप है या अबोधरूप है ? यदि वह बोधरूप है तो प्रमाता की तरह वह दूसरे प्रमाण द्वारा काहे को जाना जायगा वह तो अपने आप से जाना जायगा, ज्ञातृव्यापार अबोध रूप तो बिलकुल होता नहीं क्योंकि ज्ञाता तो चैतन्यरूप है उसका व्यापार अचेतनरूप कैसे होगा, आपने स्वतः ही "जानता है" इस प्रकार की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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