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प्रमेयकमलमार्तण्डे
अथ परम्परया, तथा हि-मनो महेश्वरेण सम्बद्ध तेन च घटादयोऽस्तेिषु रूपादय इति, अत्राप्यशेषार्थज्ञानासम्भवः । सम्बन्धसम्बन्धोऽपि हि तस्याशेषार्थैर्वर्तमानैरेव नानुत्पन्न विनष्टः । तत्काले तैरपि सह सोऽस्तीति चेन्न; तदा वर्तमानार्थसम्बन्धसम्बन्धस्यासम्भवात् । ततोऽयमन्य एवेति चेत्, तहि तज्जनितज्ञानमपि अनुत्पन्नविनष्टार्थकालीनसम्बन्धसम्बन्धजनितज्ञानादन्यदिति एकज्ञानेना
फिर इस अदृष्ट अर्थात् अत्यन्त परोक्ष या प्रसिद्ध ऐसे सन्निकर्ष की कल्पना करना भी जरूरी नहीं होगा अतः यह सिद्ध हुआ कि अणुरूप मनका सम्पूर्ण पदार्थों के साथ एक ही समय में साक्षातु संबंध जुड़ता नहीं है।
वैशेषिक-अणु मन का पदार्थों के साथ क्रम २ से संबंध होता है-अर्थात् परम्परा से अणु मन का सम्बन्ध अशेष पदार्थों के साथ जुड़ता है, वह इस प्रकार से है—कि पहिले मनका सम्बन्ध महेश्वर से होता है, और व्यापक होने के नाते ईश्वर का सम्बन्ध घटपटादि पदार्थों के साथ है ही तथा घटादिकों में रूपादिक सम्बन्धित हैं। इस तरह अणु मन का सम्बन्ध परम्परा से अशेष पदार्थों के साथ जुड़ जाता है।
जैन-ऐसा मानने पर भी संपूर्ण पदार्थों का ज्ञान तो होगा ही नहीं क्योंकि परम्परा संबंध-संबंध से सम्बन्ध-मानने पर भी उस मन का वर्तमान के पदार्थों के साथ ही सम्बन्ध रहेगा जो नष्ट हो चुके हैं तथा जो अभी उत्पन्न ही नहीं हुए हैं उनके साथ उसका संबंध नहीं रहेगा तो फिर उनके साथ संबंध नहीं होने से उनका ज्ञान कैसे होगा।
वैशेषिक-प्रजी ! ईश्वर तो सदा रहता है ना, अतः नष्ट और अनुत्पन्न पदार्थों के साथ भी वह रहता ही है।
जैन-सो ऐसा कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि जब वह अनुत्पन्न और नष्ट पदार्थों से संबंध करेगा तो उसी को जानो । उसी समय वर्तमान पदार्थ का संबंध और ज्ञान तो होगा ही नहीं।
वैशेषिक-इन अनुत्पन्न और नष्ट पदार्थों के सम्बन्ध से ईश्वर भिन्न ही है ।
जैन-तो फिर उस भिन्न ईश्वर से उत्पन्न हुआ वर्तमान ज्ञान, अनुत्पन्न पदार्थों और नष्ट पदार्थों के समय में परम्परा सम्बन्ध से जनित ज्ञान से अन्य ही
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