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( ६४ )
त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना
शुक्र, बृहस्पति, मंगल और शनि के अवस्थानमें भी भेद हो गया है ।
इसी अधिकारमें आगे ज्योतिष विमानोंका विस्तार, चन्द्रमण्डलकी हानि-वृद्धि, अढ़ाई द्वीप के चन्द्र-सूर्यादिकों की संख्या, अढ़ाई द्वीपके बाहिर चन्द्र-सूर्यादिका अवस्थान, असंख्यात द्वीप समुद्रोंके ऊपर स्थित चन्द्र-सूर्यादिकों की संख्या, अठासी ग्रहोंके नाम, चारक्षेत्र, दिन-रात्रिका प्रमाण, ताप व तमका प्रमाण, चन्द्र सूर्यादिकोंके गगनखण्ड, अधिक मास, दक्षिण-उत्तर अयनका प्रारम्भ व आवृत्तियां, नक्षत्र तिथि एवं पर्वके निकालने की रीति, समान दिनरात्रि स्वरूप विषुप, नक्षत्रों के नामादिक तथा चन्द्र-सूर्यादिकों के आयुप्रमाणादिकी प्ररूपणां की गई है । गाथाओं की समानता -
लवणादीणं वासं दुग-तिग-चदुसंगुणं तिलक्खूणं ।
आदिम-मज्झिम- बाहिरसूइ त्ति मणंति आइरिया |त्रि सा. ३१० लवणादीणं रुंद दु-ति-चउगुणिदं क़मा तिलवखूणं । आदिम-मझिम- बाहिरसूईणं होदि परिमाणं ॥ ति. प. ५-३४.
गाथा ४३३ ति. प. के सातवें अधिकारमें ( १०१ ) ज्योंकी त्यों पायी जाती है ।
५ वैमानिक लोक अधिकार में प्रथमतः सोलह और फिर इन्द्रोंकी अपेक्षा बारह कल्पों के नामोंका निर्देश किया गया है । तत्पश्चात् कल्पातीत विमानोंका उल्लेख, सौधर्मादिकों में विमानोंकी संख्या, इन्द्रकौंका प्रमाण, नाम व विस्तार; श्रेणिबद्ध विमानोंका अवस्थान, दक्षिण उत्तर इन्द्रोंका निवास, मुकुट चिह्न, नगर प्रासादिकों का रचनाक्रम, सामानिक देवादिकों की संख्या, अग्रदेवियों के नाम, कल्पस्त्रियों का उत्पत्तिस्थान, प्रवीचार, विक्रिया, अवधिविषय, जन्म-मरणान्तर, इन्द्रादिकों का उत्कृष्ट विरह, आयुप्रमाण, लौकान्तिक देवोंका स्वरूप, कल्पस्त्रियोंका आयुप्रमाण, उत्सेध, उच्छ्वास व आहारग्रहणका काल, गत्यागति, उत्पत्तिप्रकार, ईषत्प्राग्भार नामक आठवीं पृथिवीका स्वरूप, सिद्धोंका क्षेत्र और उनका सुख, इत्यादि प्ररूपणा तिलोयपणत्तिके आठवें महाधिकार में की गई प्ररूपणा के ही समान यहां भी पायी जाती है। सिद्धों की प्ररूपणा तिलोयपण्णत्तिके नौवें महाधिकार में की गई है । यहां कुछ उल्लेखनीय विशेषतायें ये हैं
( १ ) ति. प. (८, ८३-८४ ) में बतलाया है कि ऋतु इन्द्रककी चारों दिशाओं में ६२-६२ श्रेणिबद्ध विमान हैं । आगे आदित्य इन्द्रक पर्यन्त वे एक एक कम (६१-६० इत्यादि) होते गये हैं । वहीं दूसरे मतसे ६२ के स्थान में ६३ श्रेणिबद्ध विमान भी बतलाये हैं । इस मतकें अनुसार सर्वार्थसिद्धि इन्द्रकके चारों ओर भी श्रेणिबद्ध विमानों की स्थिति स्वीकार की गई है। यहां त्रिलोकसारमें ६२ वाला मत (गा. ४७३ ) स्वीकार किया गया है ।
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