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(५०)
त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना दिखलाये हैं वे वर्तमान लोकविभागमें कहाँ तक पापे जाते हैं, इस बातका यहाँ विचार किया जाता है
. (१) ति. प. म. १, गा. २७३ में प्रथमतः तीनों वातवलयोंकी मुटाई लोकशिखरपर क्रमशः २, १ और कुछ (१२५ धनुष ) कम १ कोश बतला कर पश्चात् गा. २८१ में लोकविभागके अनुसार उक्त मुटाईका प्रमाण क्रमश: १३, १३ और ११३ कोश बतलाया गया है। यह मत वर्तमान ले कविभागमें उपलब्ध नहीं होता, प्रत्युत वहां पूर्व मतानुसार (१-२७३) ही उसका प्रमाण पाया जाता है । यथा
लोकाग्रे क्रोशयुग्मं तु गव्यूतिर्नूनगोरुतम् ।
न्यूनप्रमाणं धनुषां पंचविंश-चतुशतम् ॥ लो. वि. ८.१४.
(२) ति. प. ४.२ ४४८ में 'संगाइणी लोकविभाग के अनुसार लवणसमुद्र का विस्तार जलशिखरपर दश हजार योजन प्रमाण कहा है। इस विषयको लोकविभागमें खोजने पर वहां निम्न श्लोक प्राप्त होता है
दशैवेश (?) सहस्राणि मुलेऽग्रेऽपि पृथुमत : ।
सहस्रमवगादोऽगादू स्यात् षोडशोच्छ्रित : ॥ लो. वि. २-३. इसमें अग्र भागमें उसका विस्तार दश हजार यो. प्रमाण ही बतलाया है । यहां विस्तारके लिये 'पृथु' शब्दका उपयोग किया गया है। इत्तके आगे । उक्तं च त्रिलोक प्रज्ञप्ता' कह कर ति. प. गाथा ४.२४०० उद्धृत की है । इसका सम्बन्ध प्रकरणसे स्पष्टतापूर्वक नहीं बतलाया गया।
तिलोयपण्णत्तिमें इससे पूर्व गा. २४४२ और २४४३ में बतलाया है कि दोनों और तटसे ९५००० यो. जाने पर लवणसमुद्रका जल शुक्ल पक्षमें क्रमशः बढ़ता हुआ पूर्णिमाके दिन दो कोश ऊंचा हो जाता है । वही अमावस्याके दिन घट कर भूमिके सदृश हो जाता है । यह मत — लोगाइणी ग्रन्थप्रवर' का बतलाया गया है (गा. २४४४ । ठीक इसके आगे गा. २४४५-४६ में जलका ११००० यो. अवस्थित उत्सेध बतलाकर उसकी वृद्धि व हानिका प्रमाण ५००० यो. निर्दिष्ट किया गया है । यह पिछला मत वर्तमान लोकविभागमें पाया जाता है। यथा
एकादश सहस्राणि यमवास्यां [ अमावास्यां ] गतेोच्छ्रय : ।
तत : पंच सहस्राणि पौर्णिमास्यां विवर्धते ॥ लो. वि. २-७.
(३) ति. प. गा. २४७८-२४९० में अन्तरद्वीपों और उनमें रहनेवाले कुमानुषोंका स्वरूप बतला कर आगे गा. २४९१-९९ में लोकविभागाचार्यके मतानुसार उसे फिरसे भी
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