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________________ त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अन्य ग्रंथोंसे तुलना अवधिविषय, इन्द्रियादिक मार्गणाओंकी सम्भावना, वेदना, उत्पतन, जन्म-मरणअन्तर,, गत्यागति, विक्रिया तथा पारस्परिक एवं असुरकृत वेदना, इन सबका वर्णन किया गया है । (९) व्यन्तरलोकविभागमें पहले औपपातिक, अध्युषित और आभियोग्य, ये तीन भेद व्यन्तरोंके बतलाये गये हैं । पश्चात् भवन, आवास और भवनपुर, इन तीन प्रकारके व्यन्तरस्थानोंका उल्लेख करके उनका विस्तारादि बतलाते हुए यह भी कथन किया गया है कि उक्त भवनादिक किनके होते हैं और किनके नहीं होते। आगे चलकर आठ प्रकारके व्यन्तरोंका निर्देश करते हुए उनमेंसे प्रत्येकके अवान्तरभेद, इन्द्रोंके नाम, उनकी आयु, वल्लभायें और उन वल्लभाओंके परिवारका प्रमाण बतलाया गया है । पश्चात् उपर्युक्त व्यन्तरजातियों का शरीरवर्ण, चैत्यवृक्ष, सामानिकादि देवोंकी संख्या व्यन्तरनगरियां, गणिकामहत्तरियोंके नाम और उनकी आयु एवं उत्सेध आदिका कथन किया गया है। (१०) ऊर्ध्वलोकविभागमें सर्वप्रथम भावन, व्यन्तर, नीचोपपातिक, दिग्वासी, अन्तरवासी, कूष्माण्ड, उत्पन्नक, अनुत्पन्नक, प्रमाणक, गन्धिक, महागन्ध, भुजग, प्रीतिक, आकाशोत्पन्न, ज्योतिषी, वैमानिक और सिद्ध, इनकी क्रमशः ऊपर-ऊपर स्थिति बतला कर ज्योतिषी पर्यन्त उनकी ऊर्वस्थिति व आयुका प्रमाण दिखलाया गया है। तत्पश्चात् १२ कल्पोका व कल्पातीतोंका उल्लेख करके कल्पविभागानुसार इन्द्रकप्रमाण, ऋतु आदि इन्द्रकोंके चारों ओर स्थित श्रेणिबद्ध विमानोंका संख्याक्रम, इन्द्रकनाम, १६ कल्पोंके. मतानुसार विमानसंख्या, संख्यात असंख्यात योजन विस्तारवाले विमानोंकी संख्या, कल्पानुसार श्रेणिबद्ध विमानों की संख्या, कल्पका आधार, विमानबाहल्य, प्रासादोत्सेधादि, विमानवर्ण, गति-आगति, मुकुटचिह्न, सौधर्मेन्द्रका निवासस्थान, उसके नगर-प्रासादोंका रचनाक्रम, देवीसंख्या व उनके प्रासाद, ईशानादिक अन्य इन्द्रों के नगर दिक, सामानिक आदिकोंका प्रमाण, सोम-यमादिकोंकी आयु उच्छ्वास व आहारकाल, कल्पोंमें देवों व देवियोंकी आयुका प्रमाण, सुधर्मा सभादि, प्रासादोंके अग्र भागमें स्थित स्तम्भ व न्यग्रोध पादप, यानविमान, सोमादिकके प्रधान विमान, प्रवीचार, उत्सेध, लेश्या, विक्रिया, अवधिविषय, देवियोंकी उत्पत्ति, जन्म-मरणअन्तर, तमस्काय, लौकान्तिक देव, उत्पत्यन्तर जिनपूजाप्रक्रम और सुखोपभोग इत्यादि विषयोंकी प्ररूपणा की गई है। (११) मोक्षविभागमें आठवीं ईषत्प्राग्भार पृथिवीका विस्तारादि दिखाकर सिद्धाका अवस्थान और उनकी अवगाहनाका प्रमाण बतलाया है । तत्पश्चात् सिद्धाका स्वरूप बतलाते हुए साताजन्य सुख और अतीन्द्रिय सुखकी प्ररूपणा की गई है । आगे जाकर अधः और ऊर्ध्व लोकका उत्सेधादि बतला कर अन्तिम प्रशस्तिके साथ ग्रन्थकी समाप्ति की गई है। तिलोयपणत्तिमें अनेक स्थानोंपर 'लोकविभाग' का उल्लेख करके जो जो मतभेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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