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(१४)
त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना गोमज्झगे य रुजगे अंके फलिहे लोहिदंके य । चंदप्पभे य वेरुलिए जलकंते सूरकंते य ॥ गेरुय चंदण कव्वग वयमोए तह मसारगल्लो य ।
ते जाण पुढविजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा ॥ मूला. ५, ९-१२.
( देखिये ति. प. गा. २, ११-१४। यहां कुछ पाठ अशुद्ध हुआ प्रतीत होता है। जैसे- 'अंबवालुकाओ' = ' अब्भवालुकाओ' इत्यादि )
लोओ अकिट्टिमो खलु अणाइ-णिहणो सहावणिप्पण्णो। जीवाजीवेहि भुडो णिच्चो तालरुक्खसंठाणो ॥ धम्माधम्मागासा गदिरागादि जीव-पुग्गलाणं च । जावत्तावल्लोगो आगासमदो परमणंतं ॥ मूला. ८, २२-२३.
(ति. प. १, १३३-३४.)
३ भगवती-आराधना तिलोयपण्णत्तिके चतुर्थ महाधिकारमें ऋषभादिक तीर्थंकरोंकी विरक्तिके कारणोंका निर्देश करके गा. ६११-६४२ में उनकी वैराग्यभावनाका वर्णन किया गया है। इस प्रकरण में कुछ ऐसी गाथायें हैं जो भगवती-आराधनामें भी ज्योंकी त्यों या कुछ शब्दपरिवर्तनके साथ पायी जाती हैं । उदाहरणार्थ- गा. ६१७, ६१८, ६२३, ६३४ व ६३५ भगवतीनाराधनामें क्रमशः गा. १५८२, १५८३, १०२०, ९१६ व ९२२ के रूपमें ज्योंकी त्या उपलब्ध होती हैं। इसी प्रकरणमें निम्न गाथा आई हुई है
एवं अणंतखुत्तो णिच्च-चद्गदिणिगादमज्झभिम ।
जम्मण-मरणरहट्ट अणंतखुत्तो परिगदो जं ॥ ६१९ ।। इसका उत्तरार्ध भगवती-आराधनाकी निम्न गाथामें जैसाका तैसा है
तिरियगदि अणुपत्तो भीममहावेदणाउलमपारं ।
जम्मण-मरणरह अणंतखुत्तो परिगदो जं ॥ १५८१ ॥ वहां इस गापासे तिर्यंच गतिके दुःखोंका वर्णन प्रारम्भ होकर यह निम्न गाथामें समाप्त होता है
इच्चेवमादिदुक्खं अणंतखुत्तो तिरिक्खजाणीए ।
जं पत्तो सि अदीदे काले चिंतेहि तं सव्वं ॥१५८७॥ । यहां गाथा १५८१ में आये हुए 'जं' पदका सम्बन्ध गा. १५८७ में प्रयुक्त
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