SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२८) त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी प्रस्तावना किं' अब दुःषम कालका अन्त आगया । तुम्हारी और हमारी तीन दिनकी आयु शेष है । यह अन्तिम कल्की है ।' तब उक्त चारों जन जीवन पर्यन्त चतुर्विध आहार एवं परिग्रहसे ममता छोड़ सन्यास ग्रहण करके कार्तिककी अमावस्याको समाधिमरण प्राप्त करते हैं व यथायोग्य सौंधर्म स्वर्गमें उत्पन्न होते हैं । इसपर क्रोधित हुआ कोई असुर देव मध्याह्नमें कल्कीको मार डाळता है | सूर्यास्त समय अग्नि भी नष्ट हो जाती है । इस समय उक्त दुःषम कालके ३ वर्ष ८ मास शेष रहते हैं । तत्पश्चात् अतिदुःषम कालका प्रारम्भ होता है । उसके प्रारम्भमें उत्कृष्ट आयु २० वर्ष और शरीरको उंचाई ३ ३ ३ हाथ रह जाती है । उस समय मनुष्य पशुओं जैसा आचरण करने लगते हैं । इस कालमें नरक व तिर्यच गतिसे आये हुए जीव ही यहां जन्म लेते हैं और यहां से मरकर वे पुनः नरक व तिथेच गतिमें जाते हैं । उक्त कालमें जब ४९ दिन शेष रहते हैं तब प्रलयकालके उपस्थित होनेपर सात दिन तक भयानक संवर्तक पवन चलती है । पश्चात् सात सात दिन तक क्रमशः शीतल व क्षार जल, विषजल, धूम, धूलि, वज्र और अग्रिकी वर्षा होती है, जिससे पर्वत व वृक्ष आदि नष्ट हो जाते हैं । उस समय कुछ भिन्न भिन्न जातियों के ७२ युगल प्राणी विजयार्ध पर्वतकी गुफाओं में जा छिपते हैं । कुछ प्राणियोंको दयालु देव व विद्याधर भी सुरक्षित स्थानोंमें पहुंचा देते हैं । इस प्रकार अवसर्पिणीके छह काल समाप्त हो जाते हैं । पश्चात् उत्सर्पिणीका अतिदुःषम नामक प्रथम काल उपस्थित होता है। इसके प्रारम्भ में जल व दूध आदिकी वर्षा होती है जिससे पृथिवीपर नाना रसोंसे परिपूर्ण तरु-गुल्मादि उत्पन्न होने लगते हैं । तब शीतल गन्ध प्रहण कर विजयार्धकी गुफाओं आदिको प्राप्त हुए वे मनुष्य तिर्यच निकल आते हैं । इस कालके प्रथम समयमें आयु १६ अथवा १५ वर्ष और शरीर की उंचाई एक हाथ प्रमाण होती है । पश्चात् कालस्वभावसे व बुद्धि आदि उत्तरोत्तर बढ़ने लगते हैं । आयु, उत्सेध, तेज, बल उत्सर्पिणीके दुःषम नामक द्वितीय काल में १००० वर्ष शेष रहनेपर क्रमश: चौदह तीर्थंकर आदि महापुरुष उत्पन्न बल-वीर्यादिकी उत्तरोत्तर हानि कुककर उत्पन्न होते हैं । दुःषम- सुषम नामक तृतीय कालमें होते हैं । इस प्रकार जैसे अवसर्पिणी कालने आयु, बुद्धि एवं होती है वैसे ही इस कालमें उनकी वृद्धि होती जाती है । 1 ये दोनों काल भरत और ऐरावत क्षेत्रों के आर्यखण्ड में चक्रवत् घूमते रहते हैं । इन क्षेत्रोंके ५.५ म्लेच्छखण्डों और विद्याधरश्रेणियोंमें अवसर्पिणीके चतुर्थ एवं उत्सर्पिणीके तृतीय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy