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________________ ८३०] तिलोयपण्णत्ती [८.४२६एदाणं विचाले वररयणमएसु दिवभवणेसुं । सामाणियणामसुरा णिवसंते विविहपरिवारा ॥ ४२६ तुरिमवेदी गदा। चउसीदीलक्खाणि गंतूर्ण जोयणाणि तुरिमादो । चेटेदि पंचवेदी पढमा मिव सव्वणयरेसु ॥ ४२७ एदाणं विञ्चाले णियणियआरोहका यणीया य । अभियोगा किब्बिसिया पइण्णया तह सुरा य तेत्तीसा ॥ पंचमवेदी गदा। तप्परदो गंतूणं पण्णाससहस्सजोयणाणं च । होते हु दिन्ववणाणि इंदपुराणं चउदिसासु ॥ ४२९ पुन्वादिसु ते कमसो असोयसत्तच्छदाण वणसंडा । चंपयचूदाण तहा पउमद्दहसरिसपरिमाणा ॥ ४३० एक्केक्का चेत्ततरू तेसु असोयादिगामसंजुत्ता । णग्गोहतरुसरिच्छा वरचामरछत्तपहुदिजुदा ॥ ४३१ पोक्खरणीवावीहिं मणिमयभवणेहिं संजुदा विउला । सव्वउडुजोगापल्लवकुसुमफला भांति वणसंडा॥ इन वेदियोंके मध्यमें स्थित उत्तम रत्नमय दिव्य भवनोंमें विविध परिवारसे युक्त सामानिक नामक देव निवास करते हैं ॥ ४२६ ॥ चतुर्थ वेदीका कथन समाप्त हुआ । चतुर्थ वेदीसे चौरासी लाख योजन आगे जाकर सब नगरोंमें पहिली वेदीके समान पंचम वेदी स्थित है ॥ ४१७ ॥ ८४००००० । इन वेदियोंके मध्यमें अपने अपने आरोहक अनीक, आभियोग्य, किल्विषिक, प्रकीर्णक तथा त्रायस्त्रिंश देव निवास करते हैं ॥ ४२८ ॥ पंचम वेदीका कथन समाप्त हुआ। इसके आगे पचास हजार योजन जाकर इन्द्रपुरोंकी चारों दिशाओंमें दिव्य वन हैं ॥ ४२९ ॥ पूर्वादिक दिशाओंमें क्रमसे वे अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्र वृक्षोंके वनखण्ड हैं। इन वनोंका प्रमाण पद्म द्रहके वनोंके समान है ॥ ४३० ॥ उन वनों में अशोकादि नामोंसे संयुक्त और उत्तम चमर-छत्रादिसे युक्त न्यग्रोध तरुके सदृश एक एक चैत्य वृक्ष है ॥ ४३१ ॥ पुष्करिणी वापियों व मणिमय भवनोंसे संयुक्त तथा सब ऋतुओंके योग्य पत्र, कुसुम एवं फलोंसे परिपूर्ण विपुल वनखण्ड शोभायमान हैं ॥ ४३२॥ १६ ब भरणेदि. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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