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________________ [८२९ -८. ४२५] अट्ठमो महाधियारी णाणाविहतूरेहिं गाणाविहमहुरगीयसद्देहिं । ललियमयणचणेहिं सुरणयराइं विराजति ॥ ४२० आदिमपायारादो तेरसलक्खाणि जोयणे गंतुं'। चेटेदि बिदियवेदी पढमा मिव सब्वणयरेसुं ॥ ४२१ १३०००००। वेदीणं विच्चाले णियणियसामीसरीररक्खा य । चेटुंति सपरिवारा पासादेसु विचित्तेसु ॥ ४२२ बिदियवेदी गया। तेसट्ठीलक्खाणिं पण्णाससहस्सजोयणाणि तदो। गंतूग तदियवेदी पढमा मिव सव्वणयरेसु ॥ ४२३ ६३५००००। एदाणं विच्चाले तिप्परिसाणं सुरा विचित्तेसु । चेट्ठति मंदिरेसुं णियणियपरिवारसंजुत्ता ॥ ४२४ तदियवेदी सम्मत्ता । AA तब्वेदीदो गच्छिय चउसट्रिसहस्सजोयणाणि च । चेदि तुरिमवेदी पढिमामिव सत्रणयरेखं ॥ ४२५ देवोंके नगर नाना प्रकारके तू? (वादित्रों), अनेक प्रकारके मधुर गीतशब्दों और विलासमय नृत्योंसे विराजमान हैं ॥ ४२० ॥ सब नगरोंमें आदिम प्राकारसे तेरह लाख योजन जाकर प्रथमके समान द्वितीय वेदी स्थित है ॥ ४२१ ॥ १३००००० । वेदियों के अन्तरालमें विचित्र प्रासादोंमें सपरिवार अपने अपने स्वामियोंके शरीररक्षक देव रहते हैं ॥ ४२२ ॥ द्वितीय वेदीका कथन समाप्त हुआ। सब नगरोंमें इससे आगे तिरेसठ लाख पचास हजार योजन जाकर प्रथमके समान तृतीय वेदी है ॥ ४२३ ॥ ६३५०००० । इन वेदियोंके मध्यमें स्थित विचित्र मन्दिरोंमें अपने अपने परिवारसे संयुक्त तीन परिषदोंके देव स्थित होते हैं ॥ ४२४ ॥ तृतीय वेदीका कथन समाप्त हुआ। इस वेदीसे चौंसठ हजार योजन आगे जाकर सब नगरोंमें प्रथम वेदीके समान चतुर्थ वेदी स्थित है ॥ ४२५ ॥ १८ ब अलिय'. २द जोयणे गं दु व, य जोयणेगे दुब. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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