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________________ ८०६) तिलोयपण्णत्ती [ ८.२४४पण्णासं लक्खाणि सीदिसहस्साणि होति वसहाणि । महसुक्किंदे होति हु तुरियादी तेत्तिया वि पत्तेक । ५०८०००० । पिंड ३५५६०००० । अत्तीस लक्खं दस य सहस्साणि होति वसहाणिं । तुरयादी तम्मेत्ता हाँति सहस्सारइंदम्मि ॥२४५ ३८१०००० । पिंड २६६७००००। पणवीसं लक्खाणिं चालीससहस्सयाणि बसहाणि । आरणइंदादिद्गे तुरयादी तेत्तिया वि पत्तेकं॥ २५४०००० । पिंड १७७८००००। जलहरपडलसमुस्थिदसरयमयंकंसुजालसंकासा | वसहतुरंगादीया णियणियकक्खासु पढमकक्खठिदा ॥ उदयंतदुमणिमंडलसमाणवण्णा हवंति वसहादी । ते शियणियकक्खासं चेटुंते बिदियकक्खासु ॥ २४८ फुलंतकुमुदकुवलयसरिछवण्णा' तइज्जकक्खटिदा । ते णिणियकक्खासु वसहस्सरहादिणो होति ॥ मरगयमणिसरिसतणू वविविहविभूमगेहिं सोहिल्ला । ते णियणियकवासु वमहादी तुरिमकाखटिदा ॥ पारावयमोराण कंठसरिच्छेहि देहवण्णेहिं । ते णियणियकवासु पंचमकक्खासु वसहपहुदीओ ॥ २५१ महाशुक्र इन्द्र के पचास लाख अस्सी हजार वृषभ और तुरगादिकमेंसे प्रत्येक भी इतने मात्र ही होते हैं ।। २४४ ॥ ५०८०००० x ७ = ३५५६०००० सप्तानीक । सहस्रार इन्द्रके अड़तीस लाख दश हजार वृषभ और तुरगादिक भी इतने मात्र ही होते हैं ॥ २४५ ॥ ३८१०००० ४ ७ = २६६७०००० सप्तानीक । आरण इन्द्रादिक दोके पच्चीस लाख चालीस हजार वृषभ और तुरगादिकमेंसे प्रत्येक भी इतने मात्र ही होते हैं ॥ २४६ ॥ २५४००००४ ७४ १७७८०००० सप्तानीक । __ अपनी अपनी कक्षाओं से प्रथम कक्षामें स्थित वृपभ-तुरंगादिक मेघपटलसे उत्पन्न शरत्कालीन चन्द्रमाके किरणसमूहके सदृश होते हैं ॥ २४७ ॥ अपनी अपनी कक्षाओंमेंसे द्वितीय कक्षामें स्थित वे वृषभादिक उदित होनेवाले सूर्यमण्डलके समान वर्णवाले होते हैं ॥ २४८ ॥ अपनी अपनी कक्षाओंमेंसे तृतीय कक्षामें स्थित वे वृषभ, अश्व और रथादिक फूलते हुए कुमुद एवं कुवलयके समान निर्मल वर्णवाले होते हैं ॥ २४९ ॥ ___अपनी अपनी कक्षाओंमेंसे चतुर्थ कक्षामें स्थित वे वृषभादिक मरकत मणिके सदृश शरीरवाले और उत्तम अनेक प्रकारके आभूषणोंसे शोभायमान होते हैं ॥ २५० ॥ अपनी अपनी कक्षाओं से पंचम कक्षामें स्थित वे वृषभादिक कबूतर एवं मयूरके कण्ठके सदृश देहवर्णसे युक्त होते हैं ॥ २५१ ॥ १व होति बसहाणि. २द ब सरिसच्छवण्णा. ३ व तणू विविह'. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
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