SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -७. ६१२] सतमो महाधियारो [ ७६१ सत्रे कुणति मेरुं पदाहिणं अंबुदीवजोदिगणा । अपमाणा धादसंडे तह पोक्खरम्मि ॥ - ६११ | एवं चरगिहाणं' चारो सम्मत्तो । मणुसुतरावु परदो सयंभुरमणो ति दीवउवहीणं । अचरसरूवठाणं जोइगणाणं परूवेमो ॥ ६१२ एसो मणुसुत्तरगिंरिदप्पहृदि जाव सयंभुरमणसमुद्दो त्ति संठिदचंदाइश्चाणं विष्णास विड़ि वत्तइस्लामो । तं जेहा - माणुसुत्तरगिरिंदादो पण्णाससहस्सजोयणाणि गंतूण पढमवलयं' होदि । तत्तो परं पत्लेकमेकलक्खजोयणाणि गंतूण बिदियादिवलयाणि होति जाव सयंभूरमणसमुद्दो ति । णवरि सयंभूरमणसमुहस्स वेदी पण्णाससहस्सजोयणाणिमपाविय तम्मि पदेसे वरिमवलयं होदि । एवं सव्ववलयाणि केतिया होंति त्ति उत्ते चोइस लक्खजोयणेहिं भजिदजगसेढी पुणो तेवीसवलएहि परिहीणं होदि । तस्स ठवणा १४००००० रि २३ । एदाणं वलयाणं संठिदचंदाइ चपमाणं वत्तइस्लामो- पोक्खरवरदीवद्धस्स पढमवलए संठिदचंदाइच्चा पत्तेक्कं चउदालम्भहियएकसयं होदि । १४४ । १४४ । पुक्खर वरणीररासिस्स जम्बूद्वीपमें सत्र ज्योतिषी देवोंके समूह मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं । तथा धातकीखण्ड और पुष्करार्द्ध द्वीपमें आधे ज्योतिषी देव मेरुकी प्रदक्षिणा करते हैं ॥ ६११ ॥ इस प्रकार चर ग्रहोंका चार समाप्त हुआ । मानुषोत्तर पर्वत से आगे स्वयंभूरमणपर्यन्त द्वीप - समुद्रों में अचर स्वरूपसे स्थित ज्योतिषी देवोंके समूहों का निरूपण करते हैं ।। ६१२ ।। यहांसे आगे मानुषोत्तर पर्वतसे लेकर स्वयंभूरमण समुद्र तक स्थित चन्द्र-सूर्यो की विन्यासविधिको कहते हैं । वह इस प्रकार है— मानुषोत्तर पर्वतसे पचास हजार योजन आगे जाकर प्रथम वलय है । इसके आगे स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त प्रत्येक एक लाख योजन आगे जाकर द्वितीयादिक वलय हैं । विशेष इतना है कि स्वयंभूरमण समुद्रकी वेदीसे पचास हजार योजनों को न पाकर अर्थात् स्वयंभूरमण समुद्रकी वेदसे पचास हजार योजन इधर ही उस प्रदेशमें अन्तिम वलय है । इस प्रकार सर्व वलय कितने होते हैं, ऐसा कहनेपर उत्तर देते हैं कि जगश्रेणी में चौदह लाख योजनोंका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसमेंसे तेईस कम करनेपर समस्त वलयोंका प्रमाण होता है। उसकी स्थापना ज. श्रे ÷ १४००००० - २३ । इन वलयोंमें स्थित चन्द्र-सूर्यो के प्रमाणको प्रथम वलय में स्थित चन्द्र व सूर्य प्रत्येक एक सौ कहते हैं - पुष्करार्द्ध द्वीपकेचवालीस हैं । १४४ । १४४ । TP. 96 Jain Education International १ द व विहाणं. २ द ब नलेयं. ३ द ब पदेसं. ५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001275
Book TitleTiloy Pannati Part 2
Original Sutra AuthorVrushabhacharya
AuthorA N Upadhye, Hiralal Jain
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1956
Total Pages642
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy